Thursday 1 October 2009

अशोक आंद्रे


कविताएँ

(१)

उम्मीद

जिस भूखण्ड से अभी - अभी
रथ निकला था सरपट
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
नंगा कर गए थे उन पेड़ों को
हवा के बगुले
मई के महीने में.
पोखर में वहीं,
मछली का शिशु
टटोलने लगता है मां के शरीर को.
मां देखती है आकाश
और समय दुबक जाता है झाड़ियॊ के पीछे
तभी चील के डैनों तले छिपा
शाम का धुंधलका
उसकी आंखों में छोड़ जाता है कुछ अंधेरा
पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे.
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और मां फिर से
टटोलने लगती है अपने पेट को
.
(२)

तरीका

मुर्दे हड़ताल पर चले गए हैं
पास बहती नदी ठिठक कर
खड़ी हो गई है!
यह श्मशान का दृश्य है.
चांडाल,
आग को जेब में छिपाए
मन ही मन बुदबुदाने का ढोंग करता -
मंत्र पढ़ने लगा है,
अवैध-अनौतिक पैसा ऎंठने का
शायद यह भी एक तरीका हो!

(३)

तथाकथित नारी

निष्प्राण हो जाती है
मूर्ति की तरह तथाकथित नारी
जबकि तूफान घेरता है उसके मन को,
यह इतिहास नहीं/जहां
कहानियों को सहेज कर रखा गया हो....
एक-एक परत को
उघाड़ा गया है दराती-कुदालों से,
ताकि उसकी तमाम कहानियों की गुफ़ा में
झांका जा सके,
ताकि उन कहानियों में दफ़्न
मृत आत्माओं की शांति के लिए
कुछ प्रार्थनाओं को मूर्त रूप दिया जा सके,
उस निष्प्राण होती मूर्ति के चारों ओर
जहां अंधेरा ज़रूर धंस गया है,
आखिर कला की अपराजेयता की धुंध तो
छंटनी ही चाहिए न,
ताकि मनुष्य के प्रयोजनों का विस्तार हो सके.
कई बार घनीभूत यात्राएं उसकी
संभोग से समायोजन करने तक
आदमी, कितनी आत्माओं का
राजतिलक करता रहता है
हो सकता है यह उसके
विजयपथ की दुंदुभि हो,

लेकिन नारी का विश्वास मरता नहीं
धुंए से ढंकती महाशून्य की शुभ्रता को
आंचल में छिपा लेती है
समय सवाल नहीं करता उस वक्त
उस खंडित मूर्ति पर होते परिहासों पर
शायद शिल्पियों की निःसंगता की वेदना
पार लगाने के लिए ही तो इस तरह
कालजयी होने की उपाधि से सुशोभित
किया जाता है उसे,
आखिर काल का यह नाटक किस मंच
की देन हो सकता है ,
आखि़र नारी तो नारी ही है न,
मनुष्य की कर्मस्थली का विस्तार तो नहीं न,
मूर्ति तो उसके कर्म की आख्याओं का
प्रतिरूप भर है
तभी तो उसका आवा से गमन तक का सफ़र
जारी है आज भी,
इसीलिए उसकी कथाएं ज़रूर गुंजायमान हैं
शायद यही उसका प्राण है युगान्तक के लिए
जो धधकता है मनुष्य की देह में
अनंतता के लिए.

(४)

पता जिस्म का

एक जिस्म टटोलता है
मेरे अंदर तहखाने में छिपे, कुछ जज़्बात
जिनकी क़ीमत
समय ने अपने पांवों तले दबा रखी है
उस जिस्म़ की दो आंखें एकटक
दाग़ती हैं कुछ सवालों के गोले
जिन्हें मेरी गर्म सांसें धुंआ-धुंआ करती हैं
उनकी नाक सूघंती है
मेरे आसपास के माहौल को
जिसका पता मेरे पास भी नहीं है.
उसके होंठ कुछ पूछने को
हिलते हैं आगाह करने के लिए
उसके कान मना कर देते हैं सुनने को,
मैं उस जिस्म़ की खुदाई करता हूं,
और खाली समय में ढूंढता हूं
अपने रोपे बीज को,
जो अंधेरे में पकड़ लेता है मेरा गला
पाता हूं कि वह और कोई नहीं,
मेरे ही जिस्म़ का पता है
जहां से एक नए सफ़र का दिया
टिटिमा रहा है

(५)

आंतरिक सुकून के लिए

एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर
जाता हुआ व्यक्ति/कई बार फ़िसल कर
शैवाल की नमी को छूने लगता है.
जीवन खिलने की कोशिश में
आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में
अपने ही घर के रोशनदान की आंख को
फोड़ने लगता है

मौत जरूर पीछा करती है जीवात्माओं का
लेकिन जिन्दगी फिर भी पीछा करती है मौत का
सवारी गांठने के लिए,
सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को
उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है.
कई बार उसे पूर्वजों द्वारा छोड़े गये,
सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को,
गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है.
जबकि समुद्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए
चिघाड़ता है अहर्निष,

आखिर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है
इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे
चाहे शुरू का हो या फिर/अंतिम यात्रा की बेला का,
क्योंकि कंपन की लय/टिकने नहीं देगी उसे,
जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा
उत्तेजित करता रहे चीखने-चिल्लाने के लिए.
उसके आंतरिक सुकून के लिए.

Sunday 13 September 2009

इला प्रसाद की कविताएँ

अनुभव

जिस- जिस से पाया है,
उनको मैं जानती हूँ।
जिन दरों पर सर झुकाया,
उनको पहचानती हूँ
इससे परे भी होगी दुनिया
जीवन , विश्वास , आस्था , मूल्य
मैं उनको नहीं जानती
और मेरे इस न जानने से
कहीं कुछ भी कम नहीं होता
न मेरे लिए
न उनके लिए
जीवन वही और उतना ही है
जितना अनुभवों से बना है।


अनुभव (२)

मेरे अनुभवों का संसार
कितना बड़ा या छोटा है
उससे तुम्हें क्या?
उसकी सुंदरता - कुरूपता
गहराई या भिन्नता
कुछ भी मायने रखती क्या
अगर उससे उपजा सच
यूँ शब्दों में ढलकर
तुमतक न पहुँचता??



झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।

Monday 31 August 2009

रूप सिंह चन्देल

कहानी


एक मिनट यार !

“चमन...” आवाज़ गैलरी को लाँघती, दरवाजे को फलाँगती चमन के कानों से टकराई तो मफ़लर से ढंके उसके कान चौकन्ना हो उठे।‘आहूजा आज फिर डांटेगा...कुछ भी नहीं सुनेगा।’ मेज पर तेजी से डस्टर घुमाते चमन के हाथ सरकने लगे।“आज फिर तूने सवा नौ बजा दिए। अभी तक सफाई नहीं हुई? भगवान के लिए फूल सजाने हैं... कब करेगा?” आहूजा के बायें हाथ में नोट शीट का पैड और दाहिने में पेन था। दफ़्तर जाने के साथ ये चीजें एक बार उसके हाथ आतीं तो दफ़्तर बंद होने तक वह उन्हें थामे रहता।“अभी सब हुआ जाता है सर।"“ऐसे नहीं चलेगा। समय से नहीं पहुँच सकता तो बोल, भिजवा दूँ पूना–भुवनेश्वर। करना वहाँ मटरगश्ती।"“मटरगश्ती कैसी सर! आज कोहरा अधिक था। बस अटक गई आई.टी.ओ. पुल पर...।"“रोज का बहाना छोड़। कोहरा उधर से अधिक रहा होगा वसंत कुंज इलाके में... फिर भी मैं कैसे पहुँच गया समय से !” शब्दों को पीसता आहूजा बोला।“सर, आप बस से कहाँ आते हैं। आप तो आटो से...।"“तुझे किसने मना किया है। तू भी आटो से आ।" आहूजा दाहिने हाथ से सिर खुजलाता बोला। ऐसा वह प्राय: करता है।चमन चुप रहा। मेज साफ हो चुकी तो आहूजा बोला, “जल्दी कर... भगवान के पास अगरबत्ती जला और यह ले माला।" पॉलिथीन की थैली में गुलाब की माला बढ़ाता आहूजा बोला, “इसे उस छोटी मेज पर रख दे।"“जी सर !” चमन अगरबत्ती सुलगाने लगा।“और सुन।" चमन आहूजा की ओर देखने लगा।“पानी का जग साफ करके भर ला। गिलास में हल्का गर्म पानी... आज ठंड अधिक है।"“जी सर !”आहूजा पलटा, “आज ससुरा स्वीपर भी नहीं आया। बाथरूम साफ नहीं हो पाया।" सिर खुजलाता वह बुदबुदाया, “क्या-क्या देखूँ !” आहूजा दरवाजे पर ठिठक गया। चमन जग उठाये उसके पीछे ही था कि वह चीखा, “अबे तुझे कितनी बार कहा कि आते ही ब्लोअर चालू कर दिया कर... अगर मैम आ गई...।" आहूजा ने घड़ी देखी, “आने का समय हो रहा है।... अपने साथ मेरी भी छीछालेदर करवाएगा। अब तक कमरा गर्म हो जाना चाहिए था। ऐं... समझ में नहीं आता?”“सॉरी सर, भूल गया था। अभी किए देता हूँ।" आहूजा के चेहरे के भाव देख चमन सकपका गया और ब्लोअर की ओर बढ़ा।“उसे छोड़, दौड़– अच्छी तरह जग साफ कर पानी भर... उसे मैं आन कर दूँगा।" आहूजा ब्लाअर आन करने के लिए बढ़ गया।चमन पानी लेने दौड़ गया तो आहूजा ने कमरे से अटैच मैम के बाथरूम-कम-टॉयलेट का मुआयना किया। प्रसाधन सामग्री देखी। कंघा, लिपिस्टिक, परफ्यूम, क्रीम, सब दुरुस्त... वह आश्वस्त हुआ। उसने टॉवल उलट कर टांगा, टिश्यू-पेपर्स, टॉयलेट सॉप... दुरुस्त पाया उसने।उसे दफ़्तर के चपरासियों पर विश्वास नहीं है। सभी चोर हैं– मैम की लिपिस्टिक उठा लें, परफ्यूम या पाउडर घर ले जाएं। छोटे लोगों की मानसिकता छोटी होती है। एक बार हंगामा हुआ था। मैम को एक सेमिनार में जाना था। लिपिस्टिक और कंघा गायब थे। मैम का पारा सातवें आसमान पर... वह सकपकाया-सहमा रहा। स्टॉफ-कार लग चुकी थी कमरे के बाहर। समय भी न था कि गोल मार्केट से मंगवाता। उस क्षण उसने सोचा था कि मैम के जाते ही वह चमन और स्वीपर की खबर लेगा। लेकिन, तभी मैम को याद आ गया था। पिछले दिन सेमिनार में जाते समय मैम वे चीजें पर्स में डाल कर ले गई थी।चमन और स्वीपर आरोप की गिरफ्त में आने से बच गये थे।कमरे से निकलते चमन ने मन ही मन आहूजा को भद्दी-सी गाली दी और सामने आ रहे सहायक निदेशक अंसारी को तेज आवाज़ में नमस्ते की।अंसारी ठंड से सिकुड़ा हुआ था। चमन की नमस्ते का उत्तर धीमे स्वर में दिया उसने, जिसे चमन नहीं सुन सका।‘यह ज़िन्दगी भी क्या है !’ भुनभुनाता हुआ चमन भाग्य को कोस रहा था।‘दफ़्तर में दूसरे चपरासी भी हैं, लेकिन न आहूजा उन्हें कुछ कहता है और न अंसारी। वे सब कभी भी आते-जाते हैं। लेकिन उनकी गाज मुझ पर ही गिरती है।’चमन सोच रहा था, ‘पता नहीं कौन-से पाप किए थे कि निदेशक के साथ ड्यूटी लगा दी। पाँच साल से एक ही रूटीन! सुबह पाँच बजे से ही दफ़्तर शुरू हो जाता है, बच्चे तक को ढंग से स्कूल के लिए तैयार नहीं कर पाता। पत्नी दुखी है। दुनिया को देखती जो है। पड़ोसी रामभरोसे कभी भी साढ़े आठ बजे से पहले दफ़्तर के लिए घर से नहीं निकलता। शाम छह बजे तक घर वापस। जबकि मैं दफ़्तर से ही साढ़े छह बजे के बाद निकल पाता हूँ। रात साढ़े आठ से पहले घर पहुँचना कठिन है। जबकि रामभरोसे का दफ़्तर मेरे दफ़्तर के पास ही है।’‘कितनी ही बार आहूजा को ड्यूटी बदलने को कहा, लेकिन वह सुने तब न ।’‘आहूजा है तो सेक्सन आफिसर... लेकिन संयुक्त निदेशक राव के बजाय उसका दबदबा अधिक है दफ़्तर में। वह मैम की नाक का बाल बना हुआ है। एक दिन सुधीर बाबू जिक्र कर रहे थे– आहूजा खानदानी है। इसका बाप भी इसी विभाग में था और वह भी बड़े अफसरों के सेवाभाव में रात-दिन एक किए रहता था।’नल पर दूसरे दफ़्तर के चपरासी पहले ही झुके हुए थे।‘आहूजा मुझे कहता है कि वह आटो से आ सकता है... मैं क्यों नहीं। मुझे कह ही देना चाहिए था कि नया फर्नीचर और निदेशक से लेकर दूसरे अधिकारियों के कमरों के लिए कारपेट की खरीद में बीस प्रतिशत कमीशन आहूजा साहब चमन ने नहीं खाया था। दूसरे न जाने कितने काम हैं जिसमें वह कमीशन खाता है।’‘क्या मैम को यह सब पता नहीं। लेकिन, उनके आँखें मूंदे रहने का भी कारण है। मैम के बच्चों से लेकर हसबैंड के लिए दिन-भर दफ़्तर की गाड़ी दौड़ती रहती है। प्रतिदिन लंच दफ़्तर खाते से... घर के दोनों कुत्तों के लिए हफ्ते में तीन दिन गोल मार्केट से मीट आहूजा स्वयं लेने जाता है... अपनी जेब से नहीं...दफ़्तर खाते से। एक कैजुअल लेबर रामखिलावन स्थायी रूप से मैम के घर रहता है, कुत्तों को नहलाने, टहलाने और घर के दूसरे कामों के लिए। सिविल सर्विस से एक वर्ष पूर्व रिटायर्ड मैम के पति की सेवा में दिन-भर दौड़ता रहता है रामखिलावन।’‘रामखिलावन ने एक दिन फुसफुसा कर बताया था– तू नहीं जानता चमन... आहूजा हर दूसरे दिन मैम के बंगले में सुबह आठ बजे पहुँचता है फूल लेकर... ड्राइंग-रूम के लिए। बीस के चालीस वसूलता होगा वह फूलों के- दफ़्तर से।’आहूजा फूलों की एक माला प्रतिदिन दफ़्तर लाता है। मैम के कमरे में भगवान की एक मूर्ति है... एक कोने में... मैम ने लाकर रखी थी। ट्रांसफर पर आयी, तब साथ लायी थीं। दफ़्तर पहुँचते ही मैम पाँच मिनट पूजा करती है– माला पहनाती है। शाम दफ़्तर छोड़ते समय भी पूजा करना नहीं भूलतीं। भगवान में उनकी प्रगाढ़ आस्था है। एक घटना ने आहूजा की आस्था भी उस मूर्ति के प्रति जाग्रत कर दी थी। तब से आहूजा दफ़्तर पहुँचते ही उसके सामने सिर झुकाना नहीं भूलता।हुआ यह कि एक बार मैम को कलकत्ता के लिए राजधानी ट्रेन पकड़नी थी। पूजा किए बिना जाना मैम के लिए कठिन था। लेकिन दो आवश्यक फाइलें निबटाने में उन्हें इतना समय लगा कि पूजा करने का अर्थ था–गाड़ी छूटना। गाड़ी छोड़ना उन्हें स्वीकार था, पूजा नहीं।उस दिन आहूजा विकल भाव से कभी मैम के कमरे में जाता, कभी बाहर कार तक। उसके चेहरे पर तनाव स्पष्ट था। जब तक मैम की पूजा समाप्त नहीं हुई, आहूजा अंदर-बाहर होता रहा। पूजा से निपट मैम बोली, “आहूजा, इतना परेशान क्यों हो... राजधानी मुझे लेकर ही जाएगी।"“मैम दस मिनट ही...” घड़ी देख आहूजा बोला।“पंद्रह मिनट का रास्ता है यहाँ से स्टेश्न का... ट्रेन मिलेगी।"और ट्रेन एक घंटा विलम्ब से गई थी। आहूजा सोचे बिना नहीं रह सका कि वह विलम्ब पूजा के कारण ही हुआ।दफ़्तर के दूसरे चपरासी जा चुके थे। चमन जग साफ करने लगा।चमन दबे पांव मैम के कमरे में घुसा। मैम तब तक आयी नहीं थीं। आहूजा को कमरे में न पाकर उसने राहत महसूस की। जग मैम की कुर्सी के पीछे स्टूल पर रख वह बाहर उन्हें रिसीव करने जाने के लिए मुड़ा तो उसे बाथरूम-कम-टॉयलेट से कुछ आहट-सी सुनाई दी।‘स्वीपर जगन अब आया है। इसको इतनी बार समझाया गया कि मैम के आने के समय वह बाथरूम में न घुसा करे। खुद भी मरेगा... मुझे भी मरवाएगा। मैम तो मैम... आहूजा देख लेगा तो जमीन-आसमान एक कर देगा।’बाहर का दरवाजा खोलने के लिए बढ़ता वह बाथरूम की ओर मुड़ गया। दरवाजा खोलते ही उसने जो देखा तो वह हत्प्रभ कुछ देर तक देखता ही रह गया। आहूजा संडास पर झुका हुआ था। उसके दाहिने हाथ में एक छोटा-सा डंडा था। डंडा संडास में डाल आहूजा उसे घुमा रहा था, यों जैसे संडास की सफाई कर रहा हो। क्षण भर तो चमन देखता रहा, फिर बोला, “सर, मैम आने वाली हैं। उन्हें रिसीव नहीं करेंगे।"“एक मिनट यार !...” आहूजा ने उसकी ओर देखे बिना खीझ भरा उत्तर दिया और बदस्तूर संडास में डंडा घुमाता रहा।चमन दरवाजा खोल बाहर निकल गया।
-- Roop Singh Chandelhttp://www.vaatayan.blogspot.com/wwwrachanasamay.blogspot.com

Sunday 28 June 2009

अशोक आंद्रे

डर

आकाश में झांकना
उस झाँकने में दृश्य पैदा करना
फिर उस दृश्य में अपनों को ढूँढना
डर पैदा करता है ।

ज़मीँ उलझन देती है
इन उलझनों में घंटिया बजती हैं लगातार ,
पेड़ की ओर देखो तो
आकाश फिर दिखने लगता है ।

बंद कमरे में पसरे सन्नाटे के मध्य
खिड़कियों में फंसी झिर्रियों की तरह
एक आँख देखती है
समय के आवर्त को, जो
डर के नये मापदंड पैदा करती है ।

लेकिन उलझन का क्या करूं ?
पहाडों के बीच फंसा पानी भी तो
आकाश में सफेद रेशों का जाल बुनता है
जितना उसमें घुसो उतना गहरा होता जाता है
इसीलिए आकाश में झांकना डर पैदा करता है ।

अपने तो दिखते नहीं उस झाँकने में
आदमी तो भ्रमित होता रहता है
लेकिन उन रेशों की झनक में
हृदय की धडकनों की लय है
जिन्हें सुनने तथा देखने की ललक
आकाश में फिर झाँकने को मजबूर करती है ।

डर फिर भी आंखों के किसी कोने में
धंसता रहता है ,
जिसे जीवन की ललक पीठ की ओर धकेल देती है ।


(2)

उनके पाँव

जब से सिद्धांतों की सड़क
तैयार की है अपने ही अन्दर
एक खौफ़ लगातार बढ़ता जा रहा है
क्योंकि विकास के सारे रास्ते
उथली - संस्कृति की तरफ विकसित हो रहे हैं
उसके आगे के रास्ते गहरी ढलान की तरफ
धंसते दिखाई देते हैं ।

पहाड़ जहां कांपते हैं , हवा सरसरा जाती है
क्योंकि एक लहर धुंए की
यात्रा करने लगती है ,
और मनुष्य उस धुएँ में छिपा
अपने ही लोगों का करता है विनाश
जिसके निशान इन्हीं सड़कों पर देख
सहम जाते हैं आदिवासी
अंतस में उलझा आदिवासी संशय से देखता है -
इन सड़कों को ,

जो उनकी हरियाली को लीलने लगते हैं ,
जीवन बचाने के लिए ये आदिवासी
सभ्यों से दूर अपनी आकांक्षाओं में लीन
जंगल में बहते पानी में
ज़मीं छूती हरियाली में,रोपतें हैं

नन्हें बच्चों के पांवों के चिन्ह

ताकि उनके जंगलों में जीवन की श्रंखला स्थापित हो सके ,

और पहाडों के मन में सुकून की लहर

दौड़ती रहे ।

क्योंकि उनके लिए इन सड़कों का कोई महत्व नहीं है ,

उनके पाँव ही उनकी खुबसूरत सड़कें हैं ।

Saturday 25 April 2009

अशोक आन्द्रे

कब से

कब से खामोश खड़ा मैं
आकाश की ओर घूर रहा हूँ
निष्ठुर समय पास खड़ा
अट्ठ्हास कर रहा है
क्योंकि पहाड़ पिघल रहे हैं
उनके आस - पास की हरियाली को
घोट कर पी लिया है किसी ने
इसको देखने के लिए अभिशप्त हैं हम ।
खेत सूख चलें हे कंक्रीट के पेड़ों तले
उन पर खड़ा व्यक्ति नारों से पेट भर रहा है ,

सिक्के चलते नहीं , दौड़ते हैं
उसके पीछे दौड़ते - दौड़ते
थक गया है आदमी
इस व्यवस्था का क्या किया जाए
अंधकार सुनामी की तरह धमकाता है
सिर्फ भूख से बिलखते
बच्चे ही आभास देते हैं
शायद जिन्दगी अभी ख़त्म नहीं हुई है

संदेह और भय के बीहडों में कुछ खोजने
को प्रेरित करते हैं चंद शब्द
फिर भी क्यूँ अट्टहास करता है समय ,
और मजबूर करता है आकाश घूरने को
आख़िर कब तक घूरते रहेंगे हम
अपने समय के आकाश को


छूने के प्रयास में

अंतस के गहन अंधेरे में
सिद्धांतो के विशालकाय महल खड़े हैं
जिन्हें मेरे पूर्वजों ने कभी शब्दशिल्पी बन
निर्मित किया था
जिनकी ऊचाइयां अब सांझ ढले
जमीन छूने को आतुर दिखाई देती हैं
इस सब के बावजूद उन्नत शब्द भी
चीटियों की तरह रेंगते हैं मेरे अन्दर , और
बौने स्वरूपों में परिवर्तित हो
मेरे सामने से गुजरते हुए अदृश्य हो जाती हैं ।
अपनी गंध छितराई हवा में जरुर छोड़ जाती हैं
जिन्हें मेरे हाथ छूने के प्रयास में
अचिन्हित डोरों में उलझ कर
झूलने लगते हैं
समझने में असमर्थ
धरती के जीव - जंतुओं के साथ
आकाश छूते पेडों की ऊचाइयां
सिर झुकाने लगती हैं ,
सिद्धांतो के उन विशालकाय महलों के आगे
जहां लोग अपनी अधूरी आस्था को
अपनी ही जातियों की अंध मान्यताओं की शिला पर
खंडित होते देखने के बावजूद
बनाते हैं विश्वास के ढूह
और देखता हूँ खज़िआये कुत्ते
सुबह से शाम तक अपनी कुंकुआती
ध्वनीसे चारों दिशाओं में भटकते हैं
और समय उनकी लार सा रिसता रहता है
लेकिन अंधेरे रहस्यों में
आत्माओं का आवागमन रहता है जारी
बीत रही जिन्दगी झांकना चाहती है
कुछ इस तरह जैसे पत्तलों को चाटता कुत्ता ।
समझ नहीं आता चाटूं उन पत्तलों को
या फिर मैं चला जाऊं कुत्तों के वजूद में
या ढूंढू सिद्धांतो के विशालकाय महलों में
खोई तमाम दुरात्माओं को
जिन्हें चट कर लिया है
इन विशाल शब्द शिलाओं ने ,
सिद्धांतों के विशालकाय महलों के कंगूरे
फिर - फिर छूने लगें हैं
अंतस में फैली घाटी को
शायद इसी भ्रम में से ही तो मनुष्य को
खोज कर स्थापित करना है मुझे
ताकि वे सिद्धांतो के विशालकाय
महलों में बसे आस्थाओं के साथ
दिग - दिगंत तक स्थापित रह सकें

Thursday 16 April 2009

Saturday 7 March 2009

कहानी - अशोक आन्द्रे

अब आए हो

बाहर से अँधेरा उचक - उचक कर कमरे में झांक रहा था । कमरे में बल्ब की रोशनी बाहर बादलों के बीच कड़कड़ाती बिजली से बारबार मद्धम पड़ कर दम तोड़ने की कोशिश में तड़प रही थी ।

एक ठंडी साँस लेता हुआ सुरेश कुर्सी से उठ कर खिड़की के पास आ - खड़ा हुआ । सायं - सायं करता सन्नाटा , कुत्तों की चीख पुकार सुन कर घबराता हुआ किसी कोने में दुबकने की असफल चेष्ठा करने लगा। तभी बिजली की तेज कड़कड़ाहट के साथ बरसात की पहली बूँद धरती की कोख में प्रवेश कर गई । उस गुप्त नेह के आदान- प्रदान को कौन जान पाया होगा ?

अंधेरे में ही टटोलकर मेज से ख़त उठा लिया । पत्र काका का था । मन कहीं अन्दर तक प्रफुल्लित हो उठा। उन्ही की बदौलत तो उसके भविष्य का निर्माण हुआ था । घर में कोई भी तो नही चाहता था कि वह खूब पड़े । इस सबके पीछे आर्थिक पहलू से अधिक लालच मुख्य था । बाबू पैसे को दांत से पकड़ते थे , इसीलिये सारे कर्तव्य रिश्ते पैसे के सामने फीके पड़ जाते थे ।

पत्र में काका ने मिलने की तीव्र आकांक्षा व्यक्त की थी । काफ़ी समय से सेहत ख़राब चल रही थी उनकी । काका की याद कर मन भीग उठा ।दूसरे दिन ही अटेची में कपड़े सहेज तैयारी शुरू कर दी सुरेश ने । गांव जाने के लिए गाड़ी सुबह दस बजे के करीब छूटती है । सारी तैयारी करने के बाद कुछ समान खरीदने के लिए बाजार की तरफ चल दिया था ।

लौटा तो नौ बज रहा था । पड़ौसी हाथ में तार लिए उसका इन्तजार कर रहा था । देखते ही मन आशंका से कांप उठा । मन अतीत के अंधेरे जंगल की कंटीली झाडिओं में उलझ गया । काका के बहाने घर आने को लिखा था पिता ने ? क्या वास्तव में बाबू ने काका के लिए बुलाया था ?या सिर्फ अपने लिए । आज किसे काका के लिए इतना अपनत्व घुमड़ आया ?इन्ही काका के लिए तो जीवन भर जहर उगलते रहे थे । आज उसके जरिये कौन सा इंसानी रिश्ता कायम करना चाहते हैं । लगा की अन्तिम छ्णों में इस रास्ते से गुजर कर , काका की जमीन - जायदाद हथियाना चाहते हैं । बिना लोभ के तार का खर्च तो उन्हें स्वंय बिस्तर पर पहुँचा देता है ।

जिंदगी भर लोगों की लड़ाई लड़ते रहे थे काका । गरीबों की सेवा करना ही धर्म था उनका । पीड़ित होने के बावजूद अन्दर की थाह पाने की बजाय हर वक्त धर्म की दुहाई देते रहे , जिससे दलित कर व्यक्तित्व और अस्तित्व पर काबिज हो सके । आदमी कितना बौना हो जाता है जब उसके अस्तित्व में सिर्फ स्वार्थ के आकाश होते हैं ।

काकी की मृत्यु के बाद अकेले पड़ गए थे काका । अगर जिन्दा थे तो सिर्फ मुन्ना के लिए । उनके भविष्य की सारी सम्भावनाये मुन्ना पर टिक गईं थीं ।


अँधेरा कितना जालिम होता है। रास्ता - चलते सारे उजाले को कालिख पोतता चला जाता है । जहाँ जीवन ता -उम्र एक माचिस की तीली के लिए तड़पता , असहाय सा रह जाता है । कितना मुश्किल हो जाता है उसके इतिहास का आकलन करना । जब सारे शब्द काली स्याही में डूब आत्महत्या कर रहे हों उस वक्त , कैसा लगता है इसे आज तक नही जान पाया था सुरेश । अगर कुछ जाना भी तो सिर्फ काका से जो सूने आकाश को पथरायी आँखों से ताकते रहते थे । उनकी पनीली आँखों में अक्सर बाढ के गुजर जाने के बाद का दृश्य विद्यमान रहता था ..... खंडहरों का दृश्य ।

मुन्ना भी एक दिन राह चलती भीड़ में खो गया । और जीने के सभी मूल्य सूखे पत्तों की तरह आंधी के साथ बिखर गये थे ।


स्टेशन पर उतरते ही अपराध बोध से ग्रसित हो गया था सुरेश । हर दृश्य बदला - बदला नजर आ रहा था । मानो कोई कह रहा हो - अब आए हो ? भीड़ किसी षड़यंत्र में लिप्त नजर आ रही थी । तभी किसी ने पीछे से आकर कंधे पर हाथ रखा -कहाँ चलोगे बबूआ ।

सामने गाँव का हरिया खडा था । पूरी जिंदगी उसने तांगा चलाते ही काटी थी । उसको देखते ही फीकी मुस्कान से भर उठा था सुरेश । स्मृति की कंटीली झाडियों में फंसे रहकर भी हाथ का इशारा कर दिया था ।

गाँव की अपनी ही संस्कृति होती है । जहाँ हर आदमी सामूहिक जिंदगी जीता हे । ऊपर से देखने में भोला लगता है , लेकिन ...... अन्दर की कोमलता कंटीली तारों से घिरी , दरवाजे की चौखट पर खड़े -खड़े ही कैक्टासी रिश्तों का विस्तार करती है ।

तभी यादों का एक बुलबुला तडाक से फूट पड़ता है और उसके सामने काका का स्नेहासिक्त चेहरा मुस्कुरा उठता है । पर उस मुस्कराहट में भी दर्द की एक फांस टीसती रहती है । पता नही किसके इन्तजार में बुढापा टेढी - मेढी लकीरों के रास्ते उनके चेहरे से गुजरता हुआ चला गया था । आख़िर उम्र और जीने के अरमान में कोई अनुपात क्यों नही होता है ?

सामने से एक बच्चा तेजी से भागता हुआ निकल जाता है । उसकी तरफ देखकर सुरेश बरबस ही मुस्कुरा उठता है । तभी तेजी से बनता - बिगड़ता एक बिम्ब उस मुस्कराहट के बीच उभरता है । आज से चौदह साल पहले की बात है । ठीक उसी बच्चे की उम्र का था वह तब-बंधन हीन- उन्मुक्त । यह घटना भी करीब उसी समय की है । माँ ने काका के लिए खाना देकर भेजा था । काका को खाना देकर हवेली के ठीक बीचों - बीच खेलने लग गया था वह । अकस्मात ही काका चीख पड़े थे - मन्नू ।

सहम कर ठिठक गया था । अन्दर तक कांप उठा था । उनकी चीख के साथ ही सन्नाटा पंख फड़फड़ा कर आँगन के पीपल पर बेताल की तरह लटक गया था ।

चिल्लाने के उपरांत काका अनायास ही रो पड़े थे । और उठकर मेरे पास आए थे । कहने लगे - मन्नू ! तू नही जानता की तूने अनजाने में क्या कर डाला ? और गले लगा कर जोर से फफक पड़े थे ।

हिचकियों के बीच में सिर्फ़ इतना ही सुन सका था - मन्नू नाराज है क्या ? तुझे क्या मालुम मैं , किसका इन्तजार करता रहा हूँ । देख यहाँ पर अभी - अभी तेरी काकी और मुन्ना बैठे थे । तेरी वजह से चले गए ।

आज इस घटना को समझ सकता है सुरेश । लेकिन क्या उनके विश्वाश को वह फिर से स्थापित कर सका ? सिर्फ़ इतना जाना कि जब कोई नही होता है तब आदमी स्वंम को छलता है ।

जिंदगी जीने का उनका तरीका और उससे जुड़ी फिलासफी , समाज से जुड़े स्वार्थी संदर्भो से सर्वथा भिन्न थी । किसी का दुख देखकर वे मोम की तरह पिघल उठते थे । विधवा कमली के साथ अत्याचार को सुनकर सबसे पहले वे ही सहायता को आए थे । किसी के साथ हुए अन्याय को सहना सबसे बड़ा पाप समझते थे काका । पूरे गाँव को ललकारा था उस वक्त । तब से आज तक कमली और उसकी छोटी बच्ची को अपने घर में ही शरण दे रखी है ।


गाँव सन्नाटे में आ गया था उस दिन और चौपाल पर पूरा गाँव सिमट आया था । और बाबू ? गाँव के मुखिया बनकर भर्त्सना कर रहे थे । उन्हें आशंका थी की कहीं कमली तथा उसकी बेटी मिलकर काका की संपत्ति न हड़प लें । चाह कर भी काका की सहायता न कर सका था सुरेश । उम्र आड़े हाथों आ गई थी उसके सामने । कितना बौखलाया था माँ के सामने । भारतीय नारी की तरह गूंगी रह गई थी माँ । क्या पत्नितव की मर्यादा से उठकर नारी के लिए जीना सम्भव नहीं है ?

उस दिन से काका व्यथित रहने लगे थे । गाँव से नाता ही टूट गया था । अपने अस्तित्व को आँगन के बीचों -बीच समेट कर स्थिर कर लिया था उन्होंने । आँखे सूखी नदी की तरह शांत होकर ग्लेशियर की तरह जमी रह गई थी ।

तांगा घर के करीब पहुँच गया था । अचानक ही टिड्डी दल की तरह बच्चों ने टाँगे को घेर लिया था । बच्चों की आँखों में शरारत की जगह अनुत्तरित प्रश्न थे । जी में आया की एक बार पूछ लूँ काका के बारे में किन्तु आवाज गले में ही घुमड़ कर रह गई ।

गली के दायें नुक्कड़ पर उसका घर था । उसका घर या बापू का घर ?..... जहाँ स्वार्थ का गिद्ध बोल रहा था । बायीं और काका की हवेली थी । निस्पृह ..... करूणा बिखराती ।

पैर काका की हवेली की तरफ़ मुड़ गए । जहां हर वक्त सन्नाटा अबूझ पहली की तरह व्याप्त रहता था वहां आज भीड़ हवेली के अंदर -बाहर एक दुसरे की तरफ़ आखों में ढ़ेर सारे प्रश्र लिए दिखाई दे रही थी । उन प्रश्रों के बीच काका की लाश अन्तिम यात्रा के लिए शायद उसी का इन्तजार कर रही थी । स्तब्ध रह जाता है सुरेश । फिर चौंक उठता है । लगा काका पूछ रहे है-'अब आए हो ?'

एक तेज चीख के साथ लाश के बिल्कुल करीब पहुंच जाता है । आंसू बाढ़ की मानिंद बह उठते हैं । तभी भीड़ में से उठकर दो-चार लोग उसे एक तरफ़ ले आते हैं । बिना आधार के सांत्वना देने लगते हैं । भीड़ को देख उसका पूरा व्यक्तित्व बेबसी से कांपने लगता है । यह वही भीड़ थी जो हमेशा काका की खिलाफ़त में तुरुप चाल चलकर विरोध के झंडे खड़े करती थी । लगा कि मौत को सन्नाटे की बजाय भीड़ कुछ ज्यादा ही पसंद है अन्यथा इस भीड़ का काका से क्या सरोकार है ।

बाबू को कमरे से बाहर आते हुए देखता हूँ । किसी व्यक्ति से बातें करने लगे थे । धीरे से खिसकता हुआ करीब पहुँचता हूँ और बाबू को फुसफुसाते हुए सुनता हूँ । काका की प्रापर्टी के बारे में बातचीत कर रहे थे । इस वक्त काका की अन्तिम यात्रा के समय जब उनकी आत्मा की शान्ति के लिए कुछ करना चाहिए था , ऐसी बातें सुनकर उसका मन वितृष्णा से भर उठा । फिर भी बाबू के पैर छुए , तो पहले वह चोंके और फिर अवहेलना भरे स्वर में कहा -अब आए हो ?

उसकी अंतरात्मा एक भूल - भुलैया में तड़पती हुई दौडने लगती है । दो आवाजें गहरी होकर गूंजने लगती हैँ -अब आए हो !

दोनों आवाजों के अन्तर को पहचानने का वह प्रयत्न करता है। दोनों में ही एक मलाल छुपा हुआ है देर से आने पर । एक शिकायत उभरती है , किंतु भावना की तलहटी में और यथार्थ में , ऊंचाई और निचाई का गहरा अन्तर है । स्वर्ग की पवित्रता और नर्क की अपवित्रता का बोध है। एक आवाज में प्यार है , अपनत्व है और है देर से आने की शिकायत । चाहे वे शब्द मूक रूप में उभरे थे ,एक लाश अदृश्य में फुसफुसाई थी ।

दूसरी आवाज उसके बापू की थी जिसमें सिर्फ स्वार्थ का स्वर हानि का गिला और देर से आने की शिकायत थी । उसे लगता है की उसका अपना जनक नर्क का कानूनगो है । उसे रिश्ते , स्नेह और जीवन से कोई सरोकारनहीं है । सिर्फ मुनाफे का समीकरण है ।

अचानक वह जाग सा उठता है । काका की मृत देह के चारों तरफ सांपो को कुंडली मारे बैठे देखता है । चीखना चाहता है कि जीते जी बहूत सताया तुमने । अब तो डसना बंद करो ।

अर्थी लेकर लोग चलने लगते हैँ। शोर में सिर्फ उसे अपनी रुलाई सुनाई पड़ती है । लगता है कि बाकी लोग सिर्फ एक बोझ उठाकर दूर फेंकने जा रहे हैँ जिससे निर्भय होकर हवेली पर कब्जा कर सकें ।

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Friday 27 February 2009

अशोक आन्द्रे


टी वी से पोषित होते हमारे धार्मिक तथ्य

भीड़ -भाड़ से दूर विदुर - कुटी अपने आप में रम्य स्थान होने के बावजूद अपने दुर्दिन को जीती हुई दिखी दे रही थी । बहुत चर्चा सुनी तथा पड़ी थीं मैंने । महाभारत का एक बहुचर्चित पात्र उपेक्षा के बोध से ग्रसित , अपने अन्तिम समय तक वहीं कुटिया बना आत्मचिंतन में लीन हो गया था । मानो सारा संसार मिथ्या के भरम - जाल में फसां दीख रहा था उसे । सच्चाई जिसकी जीह्वा पर हर समय विराजती थी कभी , आज जड़ हो उसी धरती पर मौन हो गई थी ।
ऐसे महान व्यक्ति की भक्ति - स्थली को देखने के लिये , एक लंबे सफर के उपरांत पहुंचा था पत्नी के साथ । कई सवाल उछाले थे उस तक । पता नहीं क्यों सारे सवाल निरुत्तर हो लौट आए थे हम तक ।
मन खीज उठा था । अशांत विक्षोभ सा । पूछने पर पता चला की वह गत दो वर्षों से वहाँ कार्यरत है ।
उधर , पुजारी शांत भाव से मन्दिर की जानकारी के साथ -साथ विधुर के बारे में बता रहा था । ठीक पीछे साठ की गिनती गिनता हुआ एक बुढ़ा व्यत्त्कि अपनी अनभिज्ञता को शीर्ष पर पंहुचा अस्पष्ट शब्दों में फुस्फुसा रहा था ........

"बाबू जी , आप काहे को परेशान हो रहे हो, कल टी वी पर महाभारत आएगा ही । आपको विदुर जी के बारे में बाकी की सारी जानकारियां मिल ही जाएंगी ।"

मैं , पत्नी के साथ इस जानकारी पर अवाक हुए बिना नही रह सका । और उसके द्वारा दी गई जानकारी पर मन ही मन खिन होता हुआ मन्दिर की सीढ़ियां उतरने लगा था ।


द्रोपती की बटलोई


एक बुदिध्जीवी न जाने किस धुन में बहुत तेज गति से चला जा रहा था । अचानक उसकी दृष्टी सडक पर पडे एक जीर्ण -शीर्ण बर्तन पर जाकर रुकी । उसने उसे उठा कर अपनी बुद्धि पर जोर दिया -"ओह यह तो शायद द्रोपदी की बटलोई है । "

वह खुशी से पागल हो गया और अपनी खोज पर गर्व करते हुए, नए चमत्कार का सूरज चमकाने के लिए शहर की और भागा । किंतु समय की उबड- खाबड सडक पर उसके अनियंत्रित कदमों ने ऐसी ठोकर खाई कि धराशायी हुए -------

उठ सकने की क्षमता खो बठने वाले शरीर से बटलोई काफी दूर जाकर गिरी ।

उधर विपरीत दिशा से अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुए बढ़ रहे अन्धकार ने धीरे धीरे सारे दृश्य को अपनी अनन्त काली चादर से ढक दिया । तब से आजतक न तो उस बटलोई का और न ही बुद्धिजिवी का । हाँ , और बहुत से बुद्धिजीवी उसी दिशा की और जाने के लिए अग्रसर जरुर हैं ।

Thursday 26 February 2009

अशोक आन्द्रे



दुःस्वप्न

एक गलियारे से
दुसरे गलियारे में जाता हुआ आदमी
मृगजाल में ठिठकता है ,
सपने लुभाते हैं उसे ,
विस्फोट से पहले
दहकते पलाशों में
चमकते गलियारों में ।
लेकिन नन्ही चिड़िया सहम जाती है
उसके हाथ में ,

हरी पत्ती देखकर ।

मुद्दे


मुद्दों की बात करते -करते

वे अक्सर रोने लगते हैं

उनका रोना उस वक्त

कुछ ज्यादा बड़ा आकार लेने लगता है

जब कटोरी में से दाल खाने के लिए

चम्मच भी नहीं हिलायी जाती उनसे

मुद्दों की बात करते -करते

कई बार वे हँसने भी लगते हैं

क्योंकि उनकी कुर्सी के नीचे

काफी हवा भर गई होती हे


मुद्दों की बात करते - करते

वे काफी थक गये हैं फिलहाल

बरसों से लोगों को

खिला रहे हैं मुद्दे

पिला रहे हैं मुद्दे

जबकि आम आदमी उन मुद्दों को

खाते - पीते हुए काफी कमजोर

और गुस्सैल नजर आने लगा है


मुद्दों की बात करते - करते

उनकी सारी योजनाएँ भी साल-दर-साल

असफलताओं की फाइलों पर चढ़ी

धूल चाटने लगी हैं

जबकि आम आदमी गले में बंधी -

घंटी को हिलाए जा रहा है


मुद्दों की बात करते - करते

उन्हें इस बात की चिंता है की

आने वाले समय में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर

आम लोगों की भूख को कैसे

काबू में रखा जा सकेगा ?


मुद्दों की बात करते - करते

वे कभी - कभी बड़बड़ाने भी लगते हैं कि

उनके निर्यात की योजना

आयात की योजना में उलझ गयी है

रूपये की तरह हर साल अवमूल्यन की स्थिति में खड़ी

उनकी राजनीति लालची बच्चे की तरह लार टपका रही है क्योंकि


आजकल मुद्दे लगातार मंदी के दौर से गुजर रहे हैं ।

Wednesday 25 February 2009

रूपसिंह चन्देल की कहानी

आदमखोर
भूरे - काले बादलों का समूह अचानक पश्चिमी क्षितिज में उभरने लगा। सरजुआ के हाथ रुक गये। हंसिया नीचे रखकर वह ऊपर की ओर देखने लगा। हवा का बहाव तेज होता जा रहा था। भूरे बादलों के छोटे-छोटे द्वीप आसमान में तैरते हुए पूरब की ओर बढ़ने लगे। चीलों और कौओं के झुण्ड पंख फैलाए हवा के बहाव को चीरने की कोशिश करते पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे।"बेमौसम ई का करि रहे हौ भगवान!" आंखें फाड़कर निहारता हुआ सरजुआ बुदबुदाया और सिर पर अंगोछा लपेटकर काटी हुई पतावर समेट-समेटकर पूरे(गट्ठर) बांधने लगा।बहुत सवेरे ही आकर वह इस काम में जुट गया था। तब से नाले के किनारे के खेतों , मेड़ों और उसके नीचे की सारी पतावर वह काट चुका था। वह अनुमान लगाने लगा कि कम-से कम पचास गट्ठर यानी कि दस बोझ पतावर वह अब तक काट चुका होगा। लेकिन काटते समय उसे क्या मालूम था कि मौसम इस तरह का रुख अख्तियार कर लेगा, नहीं तो काटने के साथ ही वह गट्ठर भी बांधता जाता। उसने फिर ऊपर की ओर देखा। बादलों के द्वीप नदारद थे। मटियायी धुन्ध तेजी से फैलती जा रही थी। हवा बेरहम-सी पेड़ों को झकझोरती सांय-सांय करती खेतों में खड़ी फसल को रौंदती लहराने लगी थी।"यो आंधी तूफान पता नहीं का कहर ढाई!" वह बुदबुदाया और फिर पतावर समेटने लगा।"लागत है इहौ साल झोंपड़िया मां नवा चपरा न पड़ि पाही।" वह फिर बुदबुदाया और उड़ती पतावर के पीछे दौड़ा।तीन साल पहले इनसे-उनसे मांग-मूंगकर उसने अपनी झोंपड़ी पर छप्पर डाला था। पिछले साल की बारिस में वह कई जगह से टपकने लगा। उसने रामदीन से पुआल मांग कर उसके ऊपर डाला, लेकिन पानी का टपकना बन्द नहीं हुआ। रात-रात भर उसके बीवी-बच्चों का सोना हराम हो गया। जिस कोने में वे सिमट-सिकुड़कर लेटते, छप्पर वहीं से टपकने लगता। कोठरी पहले से ही जर्जर थी इसलिए वह पिछ्ले कई सालों से पूरी बरसात छप्पर के नीचे ही काटता आ रहा था। कितनी ही बार उसने कोठरी बनवाने की जुगत बैठाई, मजूरी-धतूरी करके कुछ पैसे भी इकट्ठे किए, लेकिन जब भी काम शुरू करवाना चाहा, रमेसर सिंह को पता नहीं कैसे भनक लग जाती और वह उसका गला आ दबोचते। सारी जमा-पूंजी हड़प ले जाते और जाते-जाते कहते, "यह तो सूद भर है --- सूद--- तेरे बाप रमजुआ ने जो करजा लिया था उसका।"वह हाथ मलकर रह जाता अवश-उदास। कितना कर्ज लिया था उसके बाप ने यह बिना बताए ही सालों सूद वसूल करते रहते थे रमेसर सिंह । लेकिन एक बार उसने दबी जुबान पूछ ही लिया, तो बहीखाता उसके सामने फैलाकर शब्दों का गला मरोड़ते हुए वह बोले, "तू खुद ही देख ले न अपनी आंखों से कितना लिया था तेरे बाप ने---- एक-एक पाई-पैसा इसमें दर्ज है। अरे स्साले--- हाड़-चोर---- तू समझता है मैं झूठ ही तुझसे वसूल कर रहा हूं।"वह मटमैले कागज पर गुदे नीले-नीले लफ्जों को बिटर-बिटर ताकता भर रहा था, जिसके नीचे स्याही से एक अंगूठा निशान लगाया गया था और पास ही कुछ लिखा भी था।"करिया अच्छर भैंस बरोबर हूं लम्बरदार---- आप जो लिखा होइहो, हम ओहका झूठ थोड़े ही कहत हन । पर----।""पर क्या---- झूठ भी नहीं समझता और हिसाब भी देखने चला है", हुक्का गुड़गुड़ाकर धुंआ उसकी ओर फेंकते हुए रमेसर सिंह फिर बोले, "साल में एक बार सूद मांगता हूं वह तो तुझसे दिया नहीं जाता---- मेरे यहां काम करना जुझे रास नहीं आता---- ठेकेदार के सहलाने में ज्यादा मजा आता है न ----स्साला सराफत का जमाना नहीं रहा।" उन्होंने फिर हुक्का गुड़गुड़ाया और इस बार धुंआ सरजुआ के ठीक मुंह के सामने उगल दिया। उसकी आंखों में कड़वाहट-सी भर गई। खांसी आ गई तो अगोंछे से मुह-आंखें ढक वह दो कदम पीछे हट गया।"तूने मुझ पर शक किया है, इसलिए अब तू भी कान खोलकर सुन ले सरजू---- एक साल के अन्दर रुपयों काइन्तजाम करना होगा तुझे---- पूरे एक हजार हैं।"अंगोछा हटाकर पनियायी आंखों से सरजुआ ने उनकी ओरदेखा।"सुन लिया न ---- अब भाग यहां से!" रमेसर सिंह बहीखाता संभाल पलंग से उठ खड़े हुए तो वह भी मुड़ पड़ा। लेकिन उनकी आवाज सुनकर रुक गया। कुछ नरम आवाज में वह कह रहे थे, "देख, तेरी भलाई के लिए ही कर रहा हूं सरजू, ठेकेदार के चक्कर में मत पड़। रेलवे का ठेका निन्दगी भर नहीं चलेगा---- मेरे यहां आ जा। कर्ज भी उतरता रहेगा और तेरा घर भी चलता रहेगा।---- जल्दी नहीं है। अगली फसल से सही। इससे पहले जब भी जुझे कभी किसी बात की चाहत हो बेहिचक कहना----- अरे, तेरे बाप ने जो मेरी सेवा की थी, उसे मैं भूला थोड़ी ही हूं---- मुझे कभी पराया मत समझना।"वह बिना कोई उत्तर दिए चला आया और सोचता रहा था, कितना खतरनाक आदमी है यह जो मारता भी है और रोने भी नहीं देता। इसीलिए छप्पर छाने की समस्या जब इस बार भी उसके सामने आ उपस्थित हुई तब रमेसर सिंह की उस दिन की बात का सूत्र पकड़े वह उनके पास जा पहुंचा, नाले के किनारे के उनके खेतों की पतावर के लिए। सुनकर वह बोले थे, "तिहाई में काट ले---- तिहाई माने एक हिस्सा तेरा और दो हिस्से मेरे।"वह चुप रहा, क्योंकि सौदा घाटे का लग रहा था। वह तो आधे की उम्मीद लेकर आया था।"सोचक्या रहाहै, कल से ही शुरू हो जा न । इतनी पतावर है कि तिहाई में नुझे इतनी मिल जायेगी कि तेरा घर भि छा जायेगा और तू बेच भी लेगा।""अच्छा, लम्बरदार!" वह केवल इतना कहकर उठ आया था।किसी तरह वह पांच गट्ठर पतावर ही इकट्ठा कर बांध पाया, शेष उस भयंकर आंधी की चपेट में आकर उड़ गयी। पांच बांधे गट्ठर भी उड़ गये होते यदि वह उन्हें इकट्ठ कर उनके ऊपर बैठ न गया होता। आंधी इतनी तेज थी कि एक बार तोउसे लगा जैसे गट्ठरों सहित वह भी उड़ जायेगा। दिन भर के परिश्रम की उस शेष बची पूंजी को बचाने के लिए वह उन पर पसर गया और दोनों हाथों से मजबूती से पकड़ लिया। लगभग आधा घंटे के ताण्डव के बाद आंधी धीमी हुई। उसने ऊपर देखा, आसमान में कालिख-सी पुत-छा गयी थी। अभी शाम होने में काफी समय शेष था, लेकिन आंधी पूरी तरह उतर आया था। पगडण्डी के पास खड़ा नीम का पेड़ दूर से उसे दैत्य के समान दिखाई दे रहा था।"हे ईसवर, अब का करि रहे हो। हम गरीबन पर तो तनिक दया करौ भगवान! वैसेई म्हारि दिन भर की मेहनत अकाअरथ हुई गई---- छप्पर छाउब तो दूर, लागत है आज झोंपड़िया सही-सलामत न बची।" वह बुदबुदात हुआ उठा।आंधी का प्रभाव काफी कम हो गया था, लेकिन हवा फिर भी चल रही थी और उसमें ठंड का असर बढ़ गया था। हालांकि उसने जगह-जगह से पैबन्द लगा कोट अपने शरीर पर लटका रखा था, जिसे आठ साल पहले धन्नू पंडित ने तब दिया था, जब उसने पन्द्रह दिनों तक उनके यहां इस उम्मीद से काम किया था कि जो मजूरी मिलेगी, उससे वह अपनी बीमार बेटी का इलाज करवायेगा। बिटिया लगभग एक महीने से बीमार चल रही थी। पैसों के लिए उसने पुरे गांव में चक्कर लगाए थे। सबने जब टका-सा जवब दे दिया और रमेसर सिंह ने दुत्कार कर भगा दिया तब हारकर वह दूसरे सूदखोर धन्नू पंडित की शरण में गया था। और धन्नू पंडित ने उसकी मजबूरी का भरपूर फायदा उठाया था। बोले थे, "पैसे तो अभी हैं नहीं---- तू कुछ दिन काम कर, तब तक मैं जुगाड़ बना दूंगा।"वह पन्द्रह दिनों तक दिन-रात उनके यहां खटता रहा और बिटिया घर में बिना इलाज त>डपती रही थी। हर रोज धन्नू पंडीत उसे आश्वासन देते कि कल पैसे जरूर दे देंगे, लेकिन कल अगले कल पर टल जाता। आखिर पन्द्रह दिन बीतते-बीतते उसका धैर्य टूट गया तो दबी जुबान वह बोला, "पंडित जू, बिटेवा बिना इलाज मर रही है---- अगर आप पैसन का इन्तिजाम करि देते तो----।"उसकी बात पूरी होने से पहले ही धन्नू पंडित चीखे थे, "स्साले मैं कोई बेईमान हूं---- भाग जा यहां से---- नहीं दूंगा पैसे-वैसे----।"वह भौंचक उन्हें देखता रह गया था। पैरों के नीचे से जमीन खिसकती-सी लगी थी। वह गिड़गिड़ा उठा था, "पंडित जू, किरिपा करि कै----।"कुछ क्षण तक खा जाने वाली आंखों से उसे घूरते रहे थे धन्नू पंडित फिर घर के अन्दर लपकते हुए गये थे और पुराना-सा वह कोट उसके ऊपर फेंक दिया था, "ले, ले जा इसे----चल फुट मादर----।""लेकिन पंडित जू, हम इहका का करिब---- हमै तो बिटेवा के इलाज खातिर----।""इसे बेच दे किसी को, पैसे मिल जायेंगे।""पंडित जू------।" वह फिर गिड़गिड़ा उठा।"तेरी मां ---- की ----स्साला बकवास करता है।"वह कोट थामे भाग खड़ा हुआ था विवश - उदास। कोट खरीदने के लिए उसने कई लोगों से कहा, लेकिन सबने यही कहा, "किसी मुरदे से उतारा ई कोट कौन खरीदे।"सारे गांव में वह भटका, लेकिन किसी ने कोट नहीं खरीदा और एक दिन बिटिया बिना इलाज के चल बसी। उसने चाहा कि वह उस कोट को फेंक दे, लेकिन फेंक न सका। बिटेवा को तो न बचा सका , लेकिन सर्दी से अपने शरीर की बचत वह उस कोट से करने लगा था।"सब गरीबन का खून चूसैं वाले रकत पायी गुण्डे -बदमाश हैं---- चाहे रमेसर सिंह हों, धन्नू पंडित या कि ठेकेदार-----" उसने पांच गट्ठरों को पतावर का लंबा जूना बनाकर एक साथ बांधकर बोझ तैयार कर लिया और बैठकर दाएं पैर से धक्का मारकर उसे सिर पर रखना चाहा, लेकिन संतुलन बिगड़ गया। बोझ एक ओर और वह दूसरी ओर लुढ़क गये। तभी आसमान में बादलों की चीत्कार सुनाई पड़ी । वह सहम गया। जल्दी से उठकर बोझ को संभालने लगा। इस बार किसी तरह बोझ सिर पर आ गया। वह सरपट पगडंडी की ओर भागा, लेकिन नीम के पेड़ के पास पहुंचते-पहुंचते आसमान की कालिख झरने लगी। मोटे-मोटे बूंद पड़पड़ाने लगे। बारिस इतनी तेज थी कि एक कदम भी आगे बढ़ना कठिन था। नीम के पेड़ के नीचे बोझ पटक वह तने से सटकर बैठ गया। तभी उसे किसी के कंपकंपाने और दांत कटकटाते हुए 'हू-हू' करने की आवाज सुनाई पड़ी। उसने घूमकर देखा, तो दंग रह गया। रमेसर सिंह उकड़ूं बैठे कांप रहे थे।"लम्बरदार, आप----?" साश्चर्य उसने पूछा।"कौ---कौ----कौन---?""मैं हूं सरजू, लम्बरदर!""स----स----स---र----जू----ग----ग-----जब-----ठण्ड ----है----। लगता है----प्राण निकल----जायेंगे।" किसी प्रकार रमेसर सिंह कह पाये।सरजुआ चुप रहा। रमेसर सिंह को कांपता-दांत किटकिटाता देख उसे अच्छा लग रहा था। "----बूढ़ा----खूसट----खूब गरीबन का खून चूसा है तैने---- अब कहां गई ऊ हेकड़ी----।" वह मन-ही मन बुदबुदाया।"क्या----करने आया था रे यहां?""आपै ते तो पूछा रही लम्बरदार पतावर खातिर। आज सुब्बो से वही काटित रही।""ओह----ठीक है --- ठीक है। हे भगवान--- फसल तो सब सत्तानास हो गई। लागत है पत्थर गिरी----।"सरजुआ फिर चुप रहा। इस समय उसके दिमाग में एक बात घूमने लगी थी, "आज मौका अच्छा है, क्यों न इस पापी को ठिकाने लगा दिया जाय। क्यों न अपने बापू के साथ किए गए इसके अत्याचार का बदला चुका ले।"एकाएक उसकी आंखों के सामने अपने बापू की मौत का दृश्य घूम गया। वह जेठ माह की तपती एक दोपहर थी। सूरज आग उगल रहा था। बाहर लपटें-सी उठ रही थीं और कोठरी के भीतर भट्ठी सुलग रही थी। उसका बापू झिंगला खटोली पर पड़ा तड़प रहा था वह और मोहल्ले के लोग अवश-उदास नजरों से तिल-तिल समाप्त हो रहे उसे देख रहे थे। और बापू की मौत के लिए जिम्मेदार रमेसर सिंह इस समय उसके पास बैठे ठंड से थरथरा रहे थे।***रमेसर सिंह के यहां ही उसका बापू एक प्रकार से बंधुआ मजदूर की तरह काम कर रहा था। यह सब उसके बापू को विरासत में मिला था। उसे अपने बाप से यानी उसके बाबा से। उसका बाबा भी रमेसर सिंह के बापू की हलवाही में था और मरते समय हल की मुठिया अपने बेटे रमजुआ को पकड़ा गया था। एक बार पकड़ी हल की मुठिया उसके बापू के हाथों से तभी छूटी जब वह उनके अत्याचार का शिकार होकर उसे अकेला छोड़कर चला गया। वह हताश- हतबुद्धि कुछ न कर पाया था उस आदमी के खिलाफ, जिसने सुलगती रात में महुए की शराब उतारने के लिए उसके बापू को मजबूर किया था।महुए की कच्ची शराब उतारकर बेचना रमेसर सिंह का वर्षों पुराना धन्धा रहा है, जो पुलिस की मिलीभगत से आज भी बदस्तूर जारी है। उस रात भी सड़े महुओं से शराब उतारी जानी थी। इस काम में उसके बापू को ही लगाया जाता था। उस दिन उसकी तबीयत ठीक न थी। बुखार से उसका बदन तप रहा था। उसने जाने से इनकार कर दिया, लेकिन रमेसर सिंह के लठैतों के सामने उसकी एक न चली । वे उसके बापू को जबर्दस्ती घसीट ले गये। वहां पहुंचकर बापू ने रमेसर सिंह के सामने हाथ जोड़ दिए, "मालिक, बुखार के मारे चक्कर आ रहा है। काम न करि पाउब सरकार।""महुओं की गंधाहट पा के तेरा बुखार एक मिनट में रफूचक्कर हो जायेगा।" होंठ चबाकर बोले थे रमेसर सिंह और जानवरों के बांधे जाने वाले बाड़े की ओर धकियाने लगे थे उसे।"मालिक मोहते न होई---- मोहका----।" उसका बापू गिड़गिड़ा उठा था।"देखता हूं साले, कैसे नहीं होता…।" रमेसर सिंह ने अपने एक लठैत से लाठी छीनकर छः-सात लाठियां बापू की पीठ पर जमा दी थीं। औंधे मुंह गिरकर बेहोश हो गया था उसका बापू और जब होश आया तब वह उस कोठरी में था जिसमें शराब उतारी जाती थी। सामने उसके रमेसर सिंह खड़े थे और कह रहे थे, "अब रात-भर यहां से हिलने का नाम न लेना वर्ना---- अच्छा न होगा।"रात-भर बुखार में तपकर भी बापू काम करता रहा था और सबेरे घरा आते ही औंधा मुंह खटोली पर ढह गया था। एक के बाद एक कितनी ही उल्टियां और फिर दस्त शुरू हो गये थे उसे। कुछ ही घंटों में शरीर पीले पत्ते की तरह हो गया था, जैसे खून की एक-एक बूंद निचुड़ गयी हो। मौत मुंह फैलाए उसके बापू को निगलने के लिए क्षण-प्रतिक्षण आगे बढ़ती जा रही थी और वह मौत को परे धकेलने के लिए उपाय सोच रहा था। पैसे एक भी न थे उसके पास। मोहल्लेवाले भी उसी की तरह थे। उनसे मांगना बेकार था। गांव में और किसी से भी उम्मीद न थी उसे कुछ मिलने की , क्योंकि उसका बापू रमेसर सिंह के यहां काम करता था और उसकी मदद करके कोई भी गांववाला रमेसर सिंह से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता । कम-से कम उस समय तो नहीं ही और वह रमेसर सिंह की शक्ल भी नहीं देखना चाहता था। उसे घृणा हो गयी थी उनसे।"कहां से इन्तजाम करे पैसों का।" वह सोचता ही रह गया था और मौत उसके बापू पर अपने पंजे गड़ा चुकी थी। वह रह गया था अदेला---- बेहद अकेला---- रोता-बिलखता----। तभी उसके आंसू पोंछने दौड़े आए थे रमेसर सिंह, सांत्वना के मरहम से उसके घाव को भरने के लिए। वक्त जरूरत पर मदद करते रहने के आश्वासनों की झोली खोल दी थी उन्होंने उसके सामने । और वह उनसे घृणा करता हुआ न चाहकर भी गाहे-बगाहे मदद लेने के लिए मजबूर होता रहा। लेकिन उनके बहुत कहने के बाद भी वह उनकी हलवाही करने नहीं गया।***"आज से अच्छा मौका कब मिलेगा सरजू---- दबा दे इसका टेंटुआ---- बड़ी शान्ति मिलेगी बापू की आत्मा को। कौन जानेगा कैसे मरा ---- दुनिया समझेगी पानी और ठंड से मर गया होगा।" उसके हाथ रमेसर सिंह की गर्दन की ओर बढ़ने लगे।"क---क---का है रे?" कंपकंपाई आवाज में रमेसर सिंह बोले तो उसने अपने हाथ सिकोड़ लिए।"कुछ नहीं लम्बरदार---- सरदी बहुत है।" वह बोला, फिर मन-ही मन सोचने लगा, 'पापी कितना चौकन्ना है!'बूंदों की धार के साथ छोटे-छोटे ओले पड़ने लगे । सरजुआ के ठीक ऊपर एक डाल थी इसलिए उस पर तो बहुत असर नहीं हुआ, लेकिन रमेसर सिंह के सिर पर चार-छः ओले आ गिरे तो वह चीख उठे, "हाय मर गया रे---- हाय-हाय सिर फट गया----।""इधर आ जाओ लंबरदार----।" सरजुआ ने उन्हें अपने निकट खींच लिया। वहां भी कुछ ओले छिटककर उनके आ लगे। वह फिर चीखे, "सरजुआ, यहां भी बचना मुश्किल है। देख ये ओले---।" रमेसर सिंह ने कुछ ओले उसके सामने बढ़ा दिए।"लम्बरदार एकै उपाय है। आप हमार यो कोट सिर पर डारि लेव---- तो साइद कुछ बचत हुई जाय।""ला रे---- जल्दी ला---- नहीं तो यो सिर सही-सलामत न बची।"सरजुआ ने थेगलिहे और सालों से अनधुले कोट से रमेसर सिंह का सिर ढक दिया। उनको कुछ राहत मिली। सरजू के बदन में अब केवल फटा कुर्ता रह गया था और ठंड थी कि हड्डियां भेदकर अन्दर घुसी जा रही थी। दोनों टांगें हाथों से बांधकर वह उकड़ूं बैठ गया। उसके दिमाग में फिर भूचाल उठा रमेसर सिंह का गला घोंट देने के लिए। वह सर्दी भूल गया और सोचने लगा कैसे रमेसर सिंह के गले में पंजा फंसायेगा, कैसे धीरे-धीरे दबायेगा और जब वह गिड़गिड़ाने लगेंगे तब वह ठहाका मारकर हंसेगा। रमेसर सिंह को तड़पता देखकर मन की आग को जुछ तो शान्ति मिलेगी। उसने टांगों को घेरे हाथों को छुटाना चाहा। लेकिन हाथ थे कि ठंड में जम-से गये थे। उसने बहुत कोशिश की कि हाथ दोबारा चैतन्य होकर अपना काम शुरू कर दें, लेकिन वे तो चुंबक की तरह टांगों से चिपक कर रह गये थे। एक बार थोड़ी-सी जकड़न कमजोर हुई तो लगा जैसे हवा का तीर पसलियों में घुसने लगा है। उसने फिर टांगें छाती से चिपका लीं और हाथ कस लिए।तभी उसे रमेसर सिंह की आवाज सुनाई पड़ी, 'ओरे सरजुआ, देख तो अब ओला-पानी थम गया है---- किसी तरह घर पहुंचना चाहिए।"रमेसर सिंह का टेंटुआ दबा देने की उसकी योजना धराशायी हो गयी। ओला-पानी सचमुच बन्द हो चुके थे। उसने देखा, रमेसर सिंह उठ खड़े हुए थ। वह भी उठने का प्रयत्न करने लगा, लेकिन उठ न सका। लगा जैसे शरीर जम-सा गया है।"क्यों रे कितने पूरे काट पाया था पतावर के?""होंगे कोई पचास, लेकिन-----।""लेकिन क्या रे?""पचास में से कुल पांच ही बांध पावा रही ----- ओ रहा उनका बोझ---- बाकी सारी पतावर आंधी मा उड़ि गई है, ठाकुर साहब।""उड़ गयी----? उड़ गयी तो भोगना स्साले हरजाना----" रमेसर सिंह के स्वर में क्रोध स्पष्ट था, "तूने न काटी होती तो काहे को बरबादी होती---- मैं कुछ नहीं जानता।""इह मां म्हार का दोष, ठकुर साहब।" सरजुआ हतप्रभ उनकी ओर देखने लगा।"तो मेरा दोष है?---- भाग स्साले।" रमेसर सिंह ने एक लात उसके हुमक कर मारी तो वह गिरते-गिरते बचा।"ले---- सौ रुपये तुझ पर और चढ़ गये करज के---- हो गये अब पूरे ग्यारह सौ।" कोट उसके मुंह पर फेंक रमेसर सिंह पगडण्डी पर उतर गये।सरजुआ की आंखों में सैकड़ों बिजलियां एक साथ कौंध गयी। मुट्ठियां भिंच गयीं और वह उठ खड़ा हुआ।"आदमखोर----जिनावर----।" वह चीखा और उछलकर पगडण्डी पर आ गया।

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(यह कहानी हंस के मई 1987 अंक में प्रकाशित हुई थी)

रूपसिंह चन्देल माइकी के साथ
१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं।
अब तक उनकी ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ६ उपन्यास जिसमें से 'रमला बहू', 'पाथरटीला', 'नटसार' और 'शहर गवाह है' - अधिक चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघु-कहानी संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त बहुचर्चित पुस्तक 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' (जीवनी) संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित से प्रकाशित हुई है।उन्होंने रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुराद' का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में 'संवाद प्रकाशन' मेरठ से प्रकाशित हुआ है।सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
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रचना समय और वातायनसंप्रति: roopchandel@gmail.com roopschandel@gmail.com