Thursday 1 October 2009

अशोक आंद्रे


कविताएँ

(१)

उम्मीद

जिस भूखण्ड से अभी - अभी
रथ निकला था सरपट
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
नंगा कर गए थे उन पेड़ों को
हवा के बगुले
मई के महीने में.
पोखर में वहीं,
मछली का शिशु
टटोलने लगता है मां के शरीर को.
मां देखती है आकाश
और समय दुबक जाता है झाड़ियॊ के पीछे
तभी चील के डैनों तले छिपा
शाम का धुंधलका
उसकी आंखों में छोड़ जाता है कुछ अंधेरा
पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे.
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और मां फिर से
टटोलने लगती है अपने पेट को
.
(२)

तरीका

मुर्दे हड़ताल पर चले गए हैं
पास बहती नदी ठिठक कर
खड़ी हो गई है!
यह श्मशान का दृश्य है.
चांडाल,
आग को जेब में छिपाए
मन ही मन बुदबुदाने का ढोंग करता -
मंत्र पढ़ने लगा है,
अवैध-अनौतिक पैसा ऎंठने का
शायद यह भी एक तरीका हो!

(३)

तथाकथित नारी

निष्प्राण हो जाती है
मूर्ति की तरह तथाकथित नारी
जबकि तूफान घेरता है उसके मन को,
यह इतिहास नहीं/जहां
कहानियों को सहेज कर रखा गया हो....
एक-एक परत को
उघाड़ा गया है दराती-कुदालों से,
ताकि उसकी तमाम कहानियों की गुफ़ा में
झांका जा सके,
ताकि उन कहानियों में दफ़्न
मृत आत्माओं की शांति के लिए
कुछ प्रार्थनाओं को मूर्त रूप दिया जा सके,
उस निष्प्राण होती मूर्ति के चारों ओर
जहां अंधेरा ज़रूर धंस गया है,
आखिर कला की अपराजेयता की धुंध तो
छंटनी ही चाहिए न,
ताकि मनुष्य के प्रयोजनों का विस्तार हो सके.
कई बार घनीभूत यात्राएं उसकी
संभोग से समायोजन करने तक
आदमी, कितनी आत्माओं का
राजतिलक करता रहता है
हो सकता है यह उसके
विजयपथ की दुंदुभि हो,

लेकिन नारी का विश्वास मरता नहीं
धुंए से ढंकती महाशून्य की शुभ्रता को
आंचल में छिपा लेती है
समय सवाल नहीं करता उस वक्त
उस खंडित मूर्ति पर होते परिहासों पर
शायद शिल्पियों की निःसंगता की वेदना
पार लगाने के लिए ही तो इस तरह
कालजयी होने की उपाधि से सुशोभित
किया जाता है उसे,
आखिर काल का यह नाटक किस मंच
की देन हो सकता है ,
आखि़र नारी तो नारी ही है न,
मनुष्य की कर्मस्थली का विस्तार तो नहीं न,
मूर्ति तो उसके कर्म की आख्याओं का
प्रतिरूप भर है
तभी तो उसका आवा से गमन तक का सफ़र
जारी है आज भी,
इसीलिए उसकी कथाएं ज़रूर गुंजायमान हैं
शायद यही उसका प्राण है युगान्तक के लिए
जो धधकता है मनुष्य की देह में
अनंतता के लिए.

(४)

पता जिस्म का

एक जिस्म टटोलता है
मेरे अंदर तहखाने में छिपे, कुछ जज़्बात
जिनकी क़ीमत
समय ने अपने पांवों तले दबा रखी है
उस जिस्म़ की दो आंखें एकटक
दाग़ती हैं कुछ सवालों के गोले
जिन्हें मेरी गर्म सांसें धुंआ-धुंआ करती हैं
उनकी नाक सूघंती है
मेरे आसपास के माहौल को
जिसका पता मेरे पास भी नहीं है.
उसके होंठ कुछ पूछने को
हिलते हैं आगाह करने के लिए
उसके कान मना कर देते हैं सुनने को,
मैं उस जिस्म़ की खुदाई करता हूं,
और खाली समय में ढूंढता हूं
अपने रोपे बीज को,
जो अंधेरे में पकड़ लेता है मेरा गला
पाता हूं कि वह और कोई नहीं,
मेरे ही जिस्म़ का पता है
जहां से एक नए सफ़र का दिया
टिटिमा रहा है

(५)

आंतरिक सुकून के लिए

एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर
जाता हुआ व्यक्ति/कई बार फ़िसल कर
शैवाल की नमी को छूने लगता है.
जीवन खिलने की कोशिश में
आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में
अपने ही घर के रोशनदान की आंख को
फोड़ने लगता है

मौत जरूर पीछा करती है जीवात्माओं का
लेकिन जिन्दगी फिर भी पीछा करती है मौत का
सवारी गांठने के लिए,
सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को
उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है.
कई बार उसे पूर्वजों द्वारा छोड़े गये,
सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को,
गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है.
जबकि समुद्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए
चिघाड़ता है अहर्निष,

आखिर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है
इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे
चाहे शुरू का हो या फिर/अंतिम यात्रा की बेला का,
क्योंकि कंपन की लय/टिकने नहीं देगी उसे,
जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा
उत्तेजित करता रहे चीखने-चिल्लाने के लिए.
उसके आंतरिक सुकून के लिए.

6 comments:

रूपसिंह चन्देल said...

Prastut nai kavitaon ke liye badhai. Kuchh sahajata aa jaye to kitana achha ho. Vaise sab thik hai lekin kuchh duruhata khatakati hai. Mera shabdjnan thoda kama hai aur aam pathak ke bare mein sochkar kuchh chinta hoti hai.

Chandel

महावीर said...

आदरणीय आंद्रे जी
पहली बार आपके साईट पर आया हूँ. अब महसूस करता हूँ कि बहुत ही सुन्दर रचनाओं से वंचित रहा
हूँ. आपकी सभी रचनाएँ उम्मीद, तरीका, तथाकथित नारी, पता जिस्म का और आतंरिक सुकून के लिए बहुत
शब्द-चयन, भावाव्यक्ति और काव्य की दृष्टि से स्तरीय रचनाएं हैं.
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और मां फिर से
टटोलने लगती है अपने पेट को .... बहुत प्रभावशाली.
आजकल अवैध-अनैतिक धन कमाने के लिए इंसान कहाँ तक जा सकता है, आपने बड़े सुंदर ढंग से उजागर
किया है.
इसीलिए उसकी कथाएं ज़रूर गुंजायमान हैं
शायद यही उसका प्राण है युगान्तक के लिए
जो धधकता है मनुष्य की देह में
अनंतता के लिए.------वाह!
'पता जिस्म का' में भावों और शब्दों का सुन्दर सामंजस्य है:
आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में
अपने ही घर के रोशनदान की आंख को
फोड़ने लगता है
आंद्रे जी, बधाई स्वीकार कीजिए.

महावीर said...

इला जी और रूप सिंह चंदेल जी जैसे दिग्गजों की रचनाओं से कथाकाव्यम की शोभा और विविधता का
प्रसार और भी बढ़ गया है.

ashok andrey said...

aadarniya mahavir jee aapki tippani se abhibhut hoon iss tara se aapne meri jo hosla afjaai ki hei uske liye mei aapka atyant aabhaari hoon ummid hei ki bhavishya mei bhii aap ka pyaar v sneh miltaa rahegaa
dhanyavaad

ashok andrey

सुरेश यादव said...

आंद्रे जी की बहुत सुन्दर और संवेदन शील कवितायेँ पढीं आप को इन रचनाओं के लिए बधाई.mo9818032913

Dr. Sudha Om Dhingra said...

आंद्रे जी बहुत ही संवेदनशील और नश्तर चुभोती कविताएँ.
अच्छी लगीं ..बहुत -बहुत बधाई.