Saturday 7 March 2009

कहानी - अशोक आन्द्रे

अब आए हो

बाहर से अँधेरा उचक - उचक कर कमरे में झांक रहा था । कमरे में बल्ब की रोशनी बाहर बादलों के बीच कड़कड़ाती बिजली से बारबार मद्धम पड़ कर दम तोड़ने की कोशिश में तड़प रही थी ।

एक ठंडी साँस लेता हुआ सुरेश कुर्सी से उठ कर खिड़की के पास आ - खड़ा हुआ । सायं - सायं करता सन्नाटा , कुत्तों की चीख पुकार सुन कर घबराता हुआ किसी कोने में दुबकने की असफल चेष्ठा करने लगा। तभी बिजली की तेज कड़कड़ाहट के साथ बरसात की पहली बूँद धरती की कोख में प्रवेश कर गई । उस गुप्त नेह के आदान- प्रदान को कौन जान पाया होगा ?

अंधेरे में ही टटोलकर मेज से ख़त उठा लिया । पत्र काका का था । मन कहीं अन्दर तक प्रफुल्लित हो उठा। उन्ही की बदौलत तो उसके भविष्य का निर्माण हुआ था । घर में कोई भी तो नही चाहता था कि वह खूब पड़े । इस सबके पीछे आर्थिक पहलू से अधिक लालच मुख्य था । बाबू पैसे को दांत से पकड़ते थे , इसीलिये सारे कर्तव्य रिश्ते पैसे के सामने फीके पड़ जाते थे ।

पत्र में काका ने मिलने की तीव्र आकांक्षा व्यक्त की थी । काफ़ी समय से सेहत ख़राब चल रही थी उनकी । काका की याद कर मन भीग उठा ।दूसरे दिन ही अटेची में कपड़े सहेज तैयारी शुरू कर दी सुरेश ने । गांव जाने के लिए गाड़ी सुबह दस बजे के करीब छूटती है । सारी तैयारी करने के बाद कुछ समान खरीदने के लिए बाजार की तरफ चल दिया था ।

लौटा तो नौ बज रहा था । पड़ौसी हाथ में तार लिए उसका इन्तजार कर रहा था । देखते ही मन आशंका से कांप उठा । मन अतीत के अंधेरे जंगल की कंटीली झाडिओं में उलझ गया । काका के बहाने घर आने को लिखा था पिता ने ? क्या वास्तव में बाबू ने काका के लिए बुलाया था ?या सिर्फ अपने लिए । आज किसे काका के लिए इतना अपनत्व घुमड़ आया ?इन्ही काका के लिए तो जीवन भर जहर उगलते रहे थे । आज उसके जरिये कौन सा इंसानी रिश्ता कायम करना चाहते हैं । लगा की अन्तिम छ्णों में इस रास्ते से गुजर कर , काका की जमीन - जायदाद हथियाना चाहते हैं । बिना लोभ के तार का खर्च तो उन्हें स्वंय बिस्तर पर पहुँचा देता है ।

जिंदगी भर लोगों की लड़ाई लड़ते रहे थे काका । गरीबों की सेवा करना ही धर्म था उनका । पीड़ित होने के बावजूद अन्दर की थाह पाने की बजाय हर वक्त धर्म की दुहाई देते रहे , जिससे दलित कर व्यक्तित्व और अस्तित्व पर काबिज हो सके । आदमी कितना बौना हो जाता है जब उसके अस्तित्व में सिर्फ स्वार्थ के आकाश होते हैं ।

काकी की मृत्यु के बाद अकेले पड़ गए थे काका । अगर जिन्दा थे तो सिर्फ मुन्ना के लिए । उनके भविष्य की सारी सम्भावनाये मुन्ना पर टिक गईं थीं ।


अँधेरा कितना जालिम होता है। रास्ता - चलते सारे उजाले को कालिख पोतता चला जाता है । जहाँ जीवन ता -उम्र एक माचिस की तीली के लिए तड़पता , असहाय सा रह जाता है । कितना मुश्किल हो जाता है उसके इतिहास का आकलन करना । जब सारे शब्द काली स्याही में डूब आत्महत्या कर रहे हों उस वक्त , कैसा लगता है इसे आज तक नही जान पाया था सुरेश । अगर कुछ जाना भी तो सिर्फ काका से जो सूने आकाश को पथरायी आँखों से ताकते रहते थे । उनकी पनीली आँखों में अक्सर बाढ के गुजर जाने के बाद का दृश्य विद्यमान रहता था ..... खंडहरों का दृश्य ।

मुन्ना भी एक दिन राह चलती भीड़ में खो गया । और जीने के सभी मूल्य सूखे पत्तों की तरह आंधी के साथ बिखर गये थे ।


स्टेशन पर उतरते ही अपराध बोध से ग्रसित हो गया था सुरेश । हर दृश्य बदला - बदला नजर आ रहा था । मानो कोई कह रहा हो - अब आए हो ? भीड़ किसी षड़यंत्र में लिप्त नजर आ रही थी । तभी किसी ने पीछे से आकर कंधे पर हाथ रखा -कहाँ चलोगे बबूआ ।

सामने गाँव का हरिया खडा था । पूरी जिंदगी उसने तांगा चलाते ही काटी थी । उसको देखते ही फीकी मुस्कान से भर उठा था सुरेश । स्मृति की कंटीली झाडियों में फंसे रहकर भी हाथ का इशारा कर दिया था ।

गाँव की अपनी ही संस्कृति होती है । जहाँ हर आदमी सामूहिक जिंदगी जीता हे । ऊपर से देखने में भोला लगता है , लेकिन ...... अन्दर की कोमलता कंटीली तारों से घिरी , दरवाजे की चौखट पर खड़े -खड़े ही कैक्टासी रिश्तों का विस्तार करती है ।

तभी यादों का एक बुलबुला तडाक से फूट पड़ता है और उसके सामने काका का स्नेहासिक्त चेहरा मुस्कुरा उठता है । पर उस मुस्कराहट में भी दर्द की एक फांस टीसती रहती है । पता नही किसके इन्तजार में बुढापा टेढी - मेढी लकीरों के रास्ते उनके चेहरे से गुजरता हुआ चला गया था । आख़िर उम्र और जीने के अरमान में कोई अनुपात क्यों नही होता है ?

सामने से एक बच्चा तेजी से भागता हुआ निकल जाता है । उसकी तरफ देखकर सुरेश बरबस ही मुस्कुरा उठता है । तभी तेजी से बनता - बिगड़ता एक बिम्ब उस मुस्कराहट के बीच उभरता है । आज से चौदह साल पहले की बात है । ठीक उसी बच्चे की उम्र का था वह तब-बंधन हीन- उन्मुक्त । यह घटना भी करीब उसी समय की है । माँ ने काका के लिए खाना देकर भेजा था । काका को खाना देकर हवेली के ठीक बीचों - बीच खेलने लग गया था वह । अकस्मात ही काका चीख पड़े थे - मन्नू ।

सहम कर ठिठक गया था । अन्दर तक कांप उठा था । उनकी चीख के साथ ही सन्नाटा पंख फड़फड़ा कर आँगन के पीपल पर बेताल की तरह लटक गया था ।

चिल्लाने के उपरांत काका अनायास ही रो पड़े थे । और उठकर मेरे पास आए थे । कहने लगे - मन्नू ! तू नही जानता की तूने अनजाने में क्या कर डाला ? और गले लगा कर जोर से फफक पड़े थे ।

हिचकियों के बीच में सिर्फ़ इतना ही सुन सका था - मन्नू नाराज है क्या ? तुझे क्या मालुम मैं , किसका इन्तजार करता रहा हूँ । देख यहाँ पर अभी - अभी तेरी काकी और मुन्ना बैठे थे । तेरी वजह से चले गए ।

आज इस घटना को समझ सकता है सुरेश । लेकिन क्या उनके विश्वाश को वह फिर से स्थापित कर सका ? सिर्फ़ इतना जाना कि जब कोई नही होता है तब आदमी स्वंम को छलता है ।

जिंदगी जीने का उनका तरीका और उससे जुड़ी फिलासफी , समाज से जुड़े स्वार्थी संदर्भो से सर्वथा भिन्न थी । किसी का दुख देखकर वे मोम की तरह पिघल उठते थे । विधवा कमली के साथ अत्याचार को सुनकर सबसे पहले वे ही सहायता को आए थे । किसी के साथ हुए अन्याय को सहना सबसे बड़ा पाप समझते थे काका । पूरे गाँव को ललकारा था उस वक्त । तब से आज तक कमली और उसकी छोटी बच्ची को अपने घर में ही शरण दे रखी है ।


गाँव सन्नाटे में आ गया था उस दिन और चौपाल पर पूरा गाँव सिमट आया था । और बाबू ? गाँव के मुखिया बनकर भर्त्सना कर रहे थे । उन्हें आशंका थी की कहीं कमली तथा उसकी बेटी मिलकर काका की संपत्ति न हड़प लें । चाह कर भी काका की सहायता न कर सका था सुरेश । उम्र आड़े हाथों आ गई थी उसके सामने । कितना बौखलाया था माँ के सामने । भारतीय नारी की तरह गूंगी रह गई थी माँ । क्या पत्नितव की मर्यादा से उठकर नारी के लिए जीना सम्भव नहीं है ?

उस दिन से काका व्यथित रहने लगे थे । गाँव से नाता ही टूट गया था । अपने अस्तित्व को आँगन के बीचों -बीच समेट कर स्थिर कर लिया था उन्होंने । आँखे सूखी नदी की तरह शांत होकर ग्लेशियर की तरह जमी रह गई थी ।

तांगा घर के करीब पहुँच गया था । अचानक ही टिड्डी दल की तरह बच्चों ने टाँगे को घेर लिया था । बच्चों की आँखों में शरारत की जगह अनुत्तरित प्रश्न थे । जी में आया की एक बार पूछ लूँ काका के बारे में किन्तु आवाज गले में ही घुमड़ कर रह गई ।

गली के दायें नुक्कड़ पर उसका घर था । उसका घर या बापू का घर ?..... जहाँ स्वार्थ का गिद्ध बोल रहा था । बायीं और काका की हवेली थी । निस्पृह ..... करूणा बिखराती ।

पैर काका की हवेली की तरफ़ मुड़ गए । जहां हर वक्त सन्नाटा अबूझ पहली की तरह व्याप्त रहता था वहां आज भीड़ हवेली के अंदर -बाहर एक दुसरे की तरफ़ आखों में ढ़ेर सारे प्रश्र लिए दिखाई दे रही थी । उन प्रश्रों के बीच काका की लाश अन्तिम यात्रा के लिए शायद उसी का इन्तजार कर रही थी । स्तब्ध रह जाता है सुरेश । फिर चौंक उठता है । लगा काका पूछ रहे है-'अब आए हो ?'

एक तेज चीख के साथ लाश के बिल्कुल करीब पहुंच जाता है । आंसू बाढ़ की मानिंद बह उठते हैं । तभी भीड़ में से उठकर दो-चार लोग उसे एक तरफ़ ले आते हैं । बिना आधार के सांत्वना देने लगते हैं । भीड़ को देख उसका पूरा व्यक्तित्व बेबसी से कांपने लगता है । यह वही भीड़ थी जो हमेशा काका की खिलाफ़त में तुरुप चाल चलकर विरोध के झंडे खड़े करती थी । लगा कि मौत को सन्नाटे की बजाय भीड़ कुछ ज्यादा ही पसंद है अन्यथा इस भीड़ का काका से क्या सरोकार है ।

बाबू को कमरे से बाहर आते हुए देखता हूँ । किसी व्यक्ति से बातें करने लगे थे । धीरे से खिसकता हुआ करीब पहुँचता हूँ और बाबू को फुसफुसाते हुए सुनता हूँ । काका की प्रापर्टी के बारे में बातचीत कर रहे थे । इस वक्त काका की अन्तिम यात्रा के समय जब उनकी आत्मा की शान्ति के लिए कुछ करना चाहिए था , ऐसी बातें सुनकर उसका मन वितृष्णा से भर उठा । फिर भी बाबू के पैर छुए , तो पहले वह चोंके और फिर अवहेलना भरे स्वर में कहा -अब आए हो ?

उसकी अंतरात्मा एक भूल - भुलैया में तड़पती हुई दौडने लगती है । दो आवाजें गहरी होकर गूंजने लगती हैँ -अब आए हो !

दोनों आवाजों के अन्तर को पहचानने का वह प्रयत्न करता है। दोनों में ही एक मलाल छुपा हुआ है देर से आने पर । एक शिकायत उभरती है , किंतु भावना की तलहटी में और यथार्थ में , ऊंचाई और निचाई का गहरा अन्तर है । स्वर्ग की पवित्रता और नर्क की अपवित्रता का बोध है। एक आवाज में प्यार है , अपनत्व है और है देर से आने की शिकायत । चाहे वे शब्द मूक रूप में उभरे थे ,एक लाश अदृश्य में फुसफुसाई थी ।

दूसरी आवाज उसके बापू की थी जिसमें सिर्फ स्वार्थ का स्वर हानि का गिला और देर से आने की शिकायत थी । उसे लगता है की उसका अपना जनक नर्क का कानूनगो है । उसे रिश्ते , स्नेह और जीवन से कोई सरोकारनहीं है । सिर्फ मुनाफे का समीकरण है ।

अचानक वह जाग सा उठता है । काका की मृत देह के चारों तरफ सांपो को कुंडली मारे बैठे देखता है । चीखना चाहता है कि जीते जी बहूत सताया तुमने । अब तो डसना बंद करो ।

अर्थी लेकर लोग चलने लगते हैँ। शोर में सिर्फ उसे अपनी रुलाई सुनाई पड़ती है । लगता है कि बाकी लोग सिर्फ एक बोझ उठाकर दूर फेंकने जा रहे हैँ जिससे निर्भय होकर हवेली पर कब्जा कर सकें ।

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3 comments:

Anonymous said...

प्रिय अशोक,

एक अच्छी कहानी के लिए बधाई. कहानी को पुनः पढ़कर भी वही ताजगी अनुभव हुई. एक सफल रचना की यही विशेषता होती है.

शेष शुभ. सानन्द हो.

चन्देल

Anonymous said...

भाई अशोक जी
आपकी कहानी पढ़ी। अच्छी लगी।

सुभाष नीरव

Anonymous said...

Ashok jee,
Aap to kahanikaar bhee kamaal
ke hain.Basha-shailee aur anoothe
shilp se kathanak jeevant ho uthaa
hai.Achchhee khani ke liye meree
badhaaee sweekaar kijiye.