Sunday 28 June 2009

अशोक आंद्रे

डर

आकाश में झांकना
उस झाँकने में दृश्य पैदा करना
फिर उस दृश्य में अपनों को ढूँढना
डर पैदा करता है ।

ज़मीँ उलझन देती है
इन उलझनों में घंटिया बजती हैं लगातार ,
पेड़ की ओर देखो तो
आकाश फिर दिखने लगता है ।

बंद कमरे में पसरे सन्नाटे के मध्य
खिड़कियों में फंसी झिर्रियों की तरह
एक आँख देखती है
समय के आवर्त को, जो
डर के नये मापदंड पैदा करती है ।

लेकिन उलझन का क्या करूं ?
पहाडों के बीच फंसा पानी भी तो
आकाश में सफेद रेशों का जाल बुनता है
जितना उसमें घुसो उतना गहरा होता जाता है
इसीलिए आकाश में झांकना डर पैदा करता है ।

अपने तो दिखते नहीं उस झाँकने में
आदमी तो भ्रमित होता रहता है
लेकिन उन रेशों की झनक में
हृदय की धडकनों की लय है
जिन्हें सुनने तथा देखने की ललक
आकाश में फिर झाँकने को मजबूर करती है ।

डर फिर भी आंखों के किसी कोने में
धंसता रहता है ,
जिसे जीवन की ललक पीठ की ओर धकेल देती है ।


(2)

उनके पाँव

जब से सिद्धांतों की सड़क
तैयार की है अपने ही अन्दर
एक खौफ़ लगातार बढ़ता जा रहा है
क्योंकि विकास के सारे रास्ते
उथली - संस्कृति की तरफ विकसित हो रहे हैं
उसके आगे के रास्ते गहरी ढलान की तरफ
धंसते दिखाई देते हैं ।

पहाड़ जहां कांपते हैं , हवा सरसरा जाती है
क्योंकि एक लहर धुंए की
यात्रा करने लगती है ,
और मनुष्य उस धुएँ में छिपा
अपने ही लोगों का करता है विनाश
जिसके निशान इन्हीं सड़कों पर देख
सहम जाते हैं आदिवासी
अंतस में उलझा आदिवासी संशय से देखता है -
इन सड़कों को ,

जो उनकी हरियाली को लीलने लगते हैं ,
जीवन बचाने के लिए ये आदिवासी
सभ्यों से दूर अपनी आकांक्षाओं में लीन
जंगल में बहते पानी में
ज़मीं छूती हरियाली में,रोपतें हैं

नन्हें बच्चों के पांवों के चिन्ह

ताकि उनके जंगलों में जीवन की श्रंखला स्थापित हो सके ,

और पहाडों के मन में सुकून की लहर

दौड़ती रहे ।

क्योंकि उनके लिए इन सड़कों का कोई महत्व नहीं है ,

उनके पाँव ही उनकी खुबसूरत सड़कें हैं ।

6 comments:

सुभाष नीरव said...

भाई अशोक जी
आपकी दोनों ही कविताएं अपनी ओर खींचती है और सोचने को भी विवश करती हैं कि यदि जीवन में यह डर और खौफ न होता तो क्या जीवन एकरस न हो जाता ?

PRAN SHARMA said...

ASHOK JEE,
AAPKEE DONO KAVITAAON
MEIN VO SAB KUCHH HAI JO ACHCHHEE
KAVITA MEIN HOTA HAI.SUNDAR BASHA,
SHAELEE AUR BHAVON KE LIYE MEREE
BADHAAEE SWEEKAR KIJIYE.

Anonymous said...

प्रिय भाई अशोक जी,
आज कई दिनों बाद मेरा इन्टरनेट ठीक हुआ है. आपकी कवितायेँ पढ़ कर मन प्रसन्न हुआ. आपकी कविता में संवेदना के साथ साथ दर्शन की अद्भुत सूक्ष्मता अपना प्रभाव छोड़ती है. यह विरल है.
अशोक गुप्ता

Dr. Sudha Om Dhingra said...

दोनों कविताएँ अच्छी लगी, बचपन में आकाश देख कर जब दृश्यों में अपनों को ढूँढा जाता था, तो डर नहीं लगता था. ज्यों-ज्यों बड़े हुए, डर लगने लगा शायद अपने-आप को वहाँ देखने का डर है. यह डर भी जीवन का अहम् हिस्सा है. दूसरी कविता की संवेदना मन को छू गई.सुन्दर रचनायों पर बधाई!

रूपसिंह चन्देल said...

Ashok,

Tumhari donon kavitayen vilamb se padhane ke liye sharminda hun. Vaise to ye kavitayen meri padhi hui hain, lekin punah padhkar bahuta accha laga.

Badhai.

Chandel

Anonymous said...

अशोक जी, बहुत समय बाद आपके ब्लाग पर गई। आपकी दोनों कविताएँ बहुत अच्छी लगीं। आकाश का प्रतीक बहुत सुन्दर है।
पाँव ही सड़क हों तो यात्रा आनंद का श्रोत होती है, कुंठा का नहीं।
सादर
इला