Monday, 6 January 2014

सुधा आचार्य की कविताएँ





फुरसत

सुनने बैठे तुम
सुनाते गये हम
फुरसत....
ठहर गयी.

प्रेम

प्रेम नहीं
तो फिर प्रश्न ही प्रश्न हैं
प्रेम है
तो फिर प्रश्न कहाँ ?

नाटक

नाटक जीवन के पन्नों पर
लिखे होते हैं
आखिरी पन्ना होगा जरूर
नाटक सभी ने किये
कुछ ने करवाये
हमसे शिकायत न करना
हम भी नहीं करेंगे
नाटक की पोशाक
मेकअप छोड़
हाथ मिला लो
मुस्करा दो.

तैयारी

साथ तुम्हारा चाहती रही
जीने के लिए
तुम तस्वीरें संजोते रहे
याद करने के लिए
बुत हमारे गड़ते रहे
सजाने के लिए
हमें न सजाओ इस तरह तुम
साथ खड़े हैं
हम जीते जागते
नज़रें उठाओ, तैयार हैं
चलने के लिए !

फिक्र

घर की लाईट का
स्विच टूटा है
न फिक्र है
न गम है
दूर महल में
बत्तियों की चमक में
एक बल्ब भी
क्यों बुझा है
ये बड़ी फिक्र है.

कसक
कैसे नाते हैं
वक्त के साथ
बदलते हैं
गहरे बंधन
मधुर बातें
कसक दे
खिसक लेते हैं

वसीयत

वसीयत लिखते हैं
बैंक में नाम साथ लिखवाते हैं
सब उसे मिलेगा
इंश्योरेंस करवाते हैं
सब में तुम्हारा नाम है
मेरे मरने पर सब तुम्हें मिलेगा
तुम्हारा ज्यादा,बच्चों का कम
कायदा है
सत्य विश्वास की खुली किताब
बनी,वो सोचती है
ये बंद लिफाफा ही रहा
अब क्या इसे साथी के
मरने का इन्तजार करना होगा ? 
   
महाभारत  

यह गृहस्थी
बड़ी समतल दिखने वाली
उबड़-खाबड़
युद्ध भूमि है
यहाँ रोज
महाभारत है
शाम ढले
आपसी समझौते हैं.

खुशबू

यादें प्यार की
एक खुशबू
झुर्रियों भरी देह में
जीने की ताकत
भर जाती है 
*******

                                             


                                                                                               
   





विद्यार्थी जीवन से ही लेखन से जुड़ कर अपनी रचना यात्रा को नये आयाम दिए तथा  कई पुरुस्कारों से भी सम्मानित हुईं. पति कर्नल देश बंधु आचार्य जी से जुड़ने के उपरान्त सैनिक पत्नियों के कल्याण कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज की.  आजकल उदयपुर थियोसोफिकल सोसईटी से भी जुड़ी हुई हैं.
आपका पहला काव्य संकलन "बस इतना ही" २०१० में प्रकाशित.

संपर्क सूत्र-१८,पंचवटी,निरंजननाथ आचार्य मार्ग,
उदयपुर (राज.)   

Saturday, 9 November 2013

पी एन टंडन

ग़ज़ल


कहा है किसी ने ग़ज़ल आज लिख दो

मेरे मुस्कुराने का अंदाज़ लिख दो ।


किया खुशबुओं का बहुत ज़िक्र तुमने,

मेरे गेसुओं की महक आज लिख दो ।


वो काले से बादल में छुपता जो चन्दा,

चलो आज मेरी शर्म लाज लिख दो ।


जो तुमने सुनी थी वो कोयल की कूँकें,

मेरी मान लो मेरी आवाज़ लिख दो ।




ये जलती है शम्मा या जलता है कोई

मेरे तन बदन की जलन आज लिख दो ।


ज़माने के दर से न कहती जो धड़कन,

वही प्रेम की ऐ कलम आज लिख दो ।



होली के अवसर पर विरह व्यथा गीत


ओ मेरी प्यारी अलका तू भूली वादा कलका,

आँखें रोईं ऐसे जैसे खुला रह गया नलका ।



तेरी याद में भूखा सोया खाकर केवल डोसे,

छोड दिए गोभी के पराठे खाये नहीं समोसे ,

जली कटी बिन सुने नहीं है चैन मुझे इक पल का । ओ मेरी प्यारी



होली के मौके पर मैके गयी किया है धोखा,

लाल गुलाल लगा गयी गाल पे सलमा पा गयी मौका,

खिली जवानी हिला कलेजा बंद हो गया नलका । ओ मेरी प्यारी


आजा मेरी सोन चिरैया बजादे तबला दिलका,

बसा दे मेरी सूनी नगरी सलमा हो या अलका । ओ मेरी प्यारी

*******

मेरा जन्म अयोध्या के निकट टांडा में हुआ
मेरी शिक्षा वहीँ पर स्नातक स्तर तक हुई तथा 1965 में स्नातकोत्तर काशी विद्यापीठ वाराणसी से समाजशास्त्र में किया
हिंदी साहित्य में विशेष रूचि के कारण सन 1986 में मैंने हिंदी से एम.ए. भी किया
पर जीवन की भागम-भाग में साहित्यिक कार्य कुछ अधिक नहीं कर सका
अभी तक के अपने जीवन की उपलब्धिओं से संतुष्ट हूँ

जीवन के इस पड़ाव में अब जीवन को सही मायने में जीने की इच्छा रखता हूँ
साहित्य सेवा के माध्यम से दूसरों तक अपनी बात पहुंचाना तथा उनके लेखन से उनके विचार जानना और समझना चाहता हूँ

Monday, 26 March 2012

राजेश उत्साही


मरने से पहले

मैं
बिखर जाने से पहले
जीना चाहता हूँ
फूल भर जिन्दगी
महकाना चाहता हूँ
सुवास अपनी

मैं
हवाओं में विलीन होने से पहले
हंसना चाहता हूँ
उन्मुक्त हँसी भर कर
फेफड़े में
शुद्ध प्राणवायु

मैं
नष्ट होने से पहले
चूमना चाहता हूँ
एक जोडी पवित्र होंठ
तृप्त होने तक

मैं
शरीर छोड़ने से पहले
स्वीकारना चाहता हूँ
अपराध अपने
ताकि
रहे आत्मा बोझविहीन

मैं
चेतना शून्य होने से पहले
सोना चाहता हूँ
रात भर
इत्मीनान से
ताकि न रहे उनींदापन
सच तो
यह है कि
मैं
मरना नहीं चाहता हूँ
मरने से पहले.
####

स्त्री

स्त्री
तुम जा रही हो
लकड़ी चुनने या कि रोपने जंगल

स्त्री
तुम जा रही हो बोने सुख
या कि रखने बुनियाद

स्त्री
तुम पछीट रही हो आसमान
या कि गूँथ रही हो धरती

स्त्री
तुम काँधे पर ढ़ो रही हो दुनिया
या कि तौल रही हो
आदमी की नीयत

स्त्री
तुम तराश रही हो मूर्ति
या कि गर्भ में मानव

स्त्री
तुम विचर रही हो अन्तरिक्ष में
या कि समुद्र तले

स्त्री
तुम रही हो चार कदम आगे
या कि हो हमकदम

स्त्री
तुम बहा रही हो नयन से स्नेह
या कि आँचल से अमृत

स्त्री
तुम इस दुनिया में
या कि ब्रह्मांड में जहां भी
जिस रूप में हो
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ.

####

प्रेम के कुछ क्षण

जैसे
एक गिलहरी
अपने भोजन के बहाने
छुपाकर भूल जाती है तमाम बीज मिट्टी में
ताकि कड़े दिनों में आएं काम

मैं भूल
जाना चाहता हूँ बोकर
प्रेम के कुछ क्षण
यहाँ-वहां

ताकि
उदास होने लगूँ
जब इस नश्वर दुनिया से
तब
जी सकूं
उनके लिए .
####




१३नवम्बर,१९५८,मिसरोद,भोपाल.म.प्र.में जन्म.
शैक्षिक संस्था एकलव्य.भोपाल में १९८२से २००८ तक कार्यरत .चकमक,गुल्लक,पलाश,
प्रारंभ का संपादन.नालंदा,लखनऊ संस्था हेतु बच्चों के लिए ३० चित्रकथाओं का विकास
एवं सम्पादन.आजकल अजीमप्रेमजी विश्वविधालय,बंगलोर के स्रोत्र केंद्र में टीचर्स आफ
इंडिया पोर्टल में हिंदी संपादक.

email-utsahi@gmail.com
mobile: 09731788446


Monday, 31 October 2011

तीन कवितायेँ- बसंत कुमार परिहार



नई यात्रा का आरम्भ

आज फिर सिमटकर



सामने आ गया है समय
ज़ूम लैंस लगे कैमरे की तरह
इन्फिनिटी पर बैठे दृश्य
यकबक उछलकर
सामने आ गए हैं बहुत क़रीब
घिर आई है फिर
वही पुरानी बदरिया

स्मृतिओं के उसी पुराने आँगन पर
और झरने लगी हैं बूँदें
धरती फिर हो उठी है रसवंती
ठूंठ हुए पेड़ की जड़ों के तंतु
पीने लगे हैं जीवन की रसधार

मैं भी
एक सिहरन सी अनुभव कर रहा हूँ
अपने शरीर में

फुनगियाँ
फिर फूट रही हैं शरीर के रंद्रों से
विगत फिर गुदगुदा रहा है मुझे
और
कोई बड़ी सुरीली सी तान
फिर गूंजने लगी है मेरे कानों में
बंजर मेरी धरती
फिर बन उठी है वृन्दावन

विगत और आगत
मेरी दूरबीन के लैंस के फ़ोकस पर
आ बैठे हैं एक साथ
और सब कुछ जो आउट आफ फ़ोकस था

फिर साफ सुथरा
नवजात मेमने सा
फुदकने लगा है मेरी आँखों के सम्मुख
जीवन के इस पड़ाव से
कई बार गुजरा है मेरा कारवाँ

आज फिर किसी नई यात्रा का
आरम्भ है मेरे दोस्त !
######


दो

आदमी बहुत छोटा है


आओ,
इन हवाओं के साथ मिलकर गाएं
इनकी सरसराहट में
प्रादेशिकता की बू नहीं -

आओ,
इन विहगों के साथ मिलकर गाएं
और उड़ें निर्भीक होकर-
इन्हें
न सैलाब का डर है
न किसी आंधी या तूफान का-
इनकी दुनिया में
आतंकवादी नहीं होते-

हवाओं की तरह
इनका जीवन भी मुक्त है- बन्धनहीन !

अपनी इच्छा से उड़ते हैं ये प्रवासी -
इनकी दुनिया में कोई रोकटोक नहीं
न कोई बंधन है पासपोर्ट का
न प्रवास पत्र की ज़रुरत -

हवाओं की तरह
गुदगुदा लेते हैं ये सीना
चड़ी नदी का-
घुस जाते हैं
पर्वतों की फटी दरारों में-

पेड़ों से कर लेते हैं छेड़खानी -

अपने पंखों पर
तोल लेते हैं ताकत तूफानों की !
आदमी कितना छोटा है इनके आगे !
खुद अपने आप से डरा
अपने बन्धनों में बंधा
अपनी ही रस्सिओं में कसा !

आओ, हवाओं के साथ गाएं
पक्षिओं के साथ उड़ें........

####

तीन

नींद से जागना


हर सुबह में उठता हूँ
और एक नया संसार होता है मेरे सामने
और सामने होती है
रेशमी उजाले में लरजती
एक संसृति-

प्रतिदिन
पाता हूँ मैं
एक नूतन वरदान -

कितना दिव्य है
नींद से नित जागना
भीड़ में गुम हो जाना
अकेले में गुनगुनाना
मुस्कुराना
शब्दों के फूल चुनना
पिरोना
और उस एकांत को सजाना
जहां से
संगीत का एक झरना फूटता है
और प्रकाश की चादर ओड़कर
सो जाता हूँ........

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अब तक कुल पन्द्रह पुस्तकें प्रकाशित तथा कई पुरुस्कारों से सम्मानित।
वर्तमान में -त्रैमासिक -पत्र 'आकार ', अब अहमद का लगातार सम्पादन ।
संपर्क -१/१, पत्रकार कालोनी , नारायणपुरा , अहमदाबाद (गुजरात )
फ़ोन : ०७९-२७४३५८०१

Sunday, 6 June 2010

अशोक गुप्ता

सुराख
मेरी कमीज़ में एक सुराख है
मैं
जब उसे पहन कर
घर के बाहर निकलता हूँ,
मेरा कद
दोनों सिरों पर
तेज़ी से जलती मोमबत्ती की तरह
घटने लगता है
और
मैं टांक लेता हूँ उस सुराख पर
अपनी हथेलियों के पेवंद.

कुछ एक सुराख
मेरी बनियाइन में भी हैं.
मैं जब उसे उतार कर
घर की खूँटी पर टाँगता हूँ,
आर्थिक आंकड़ों का एक रेगिस्तान
मेरी आँख के आगे घूम जाता है
और
मैं झपट लेता हूँ अपनी मुठ्ठियों में
अपनी कमीज़ का
कोई एक कोना.

किसे पता है,
मेरे कलेजे मैं कितने सुराख हैं ?

सूरज रोज़ उगता है
रोज़ डूब जाता है,
और इस बीच मेरे कलेजे मैं
अनगिनत सुराख़
और बढ़ जाते हैं.

मुझे नहीं पता
कलेजा क्यों नहीं बदला जा सकता
कमीज़ की तरह
और
क्यों मेरी उंगलियाँ
मेरे कलेजे के सुराखों पर
पेवंद बनने से इनकार कर देती हैं ?
मेरे दिमाग में भी
एक सुराख है शायद....
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उस दिन..
उस दिन
टट्टू से,
पैदल
और नाव से
तय हुआ मेरा सफ़र
और तब जा कर मैं पहुँच पाया.

उस दिन
इंतज़ार भरी यात्रा में,
सुस्ताने में
चलते चलते पल भर ठहर कर,
और
असमंजस में
कट गया मेरा समय
और, तब जा कर मैं पहुँच पाया.

उस दिन
काजी से,
अपनी मां से
और इस उस से
मैं पूछता रहा अपने घर का पता
और
सुनता रहा बार बार
कि यहाँ कोई नहीं रहता
मेरे शहर मोहल्ले में
मेरे नाम पते का..

उस दिन कि शिनाख्त ?
यह तो
बहुत कठिन है दोस्त,
मैं
किस दिन तो उंगली रख कर
वह दिन कह दूँ..
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पता
एक घर
धीरे धीरे खँडहर हो रहा है
भूचाल के बाद.

एक आदमी
काठ हो रहा है धीरे धीरे
बैठा हुआ कुर्सी पर,
हिसाब कर रहा है
ट्रक पर लदते हुए आलू के बोरों का.

एक सपना
फडफडा रहा है गोदाम में चमगादड़ की तरह
किसी की आंख में
उसकी जगह नहीं है.

पेड़ की कोटर से
निकल रहा है एक सांप
ओस से भीगी हुई दूब वाली ज़मीन पर
हर आदमी, हर घर,
उसे सबका पता मालूम है।


२९ जनवरी १९४७ को देहरादून में जन्म. अब तक सौ से अधिक कहानियां , अनेको कविताएँ दो कहानी संग्रह ,एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं . बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा daughter of east को हिंदी में अनुवाद .
संपर्क - बी - ११/४५ ,सेक्टर १८ ,रोहिणी , दिल्ली - 110089

Thursday, 1 October 2009

अशोक आंद्रे


कविताएँ

(१)

उम्मीद

जिस भूखण्ड से अभी - अभी
रथ निकला था सरपट
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
नंगा कर गए थे उन पेड़ों को
हवा के बगुले
मई के महीने में.
पोखर में वहीं,
मछली का शिशु
टटोलने लगता है मां के शरीर को.
मां देखती है आकाश
और समय दुबक जाता है झाड़ियॊ के पीछे
तभी चील के डैनों तले छिपा
शाम का धुंधलका
उसकी आंखों में छोड़ जाता है कुछ अंधेरा
पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे.
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और मां फिर से
टटोलने लगती है अपने पेट को
.
(२)

तरीका

मुर्दे हड़ताल पर चले गए हैं
पास बहती नदी ठिठक कर
खड़ी हो गई है!
यह श्मशान का दृश्य है.
चांडाल,
आग को जेब में छिपाए
मन ही मन बुदबुदाने का ढोंग करता -
मंत्र पढ़ने लगा है,
अवैध-अनौतिक पैसा ऎंठने का
शायद यह भी एक तरीका हो!

(३)

तथाकथित नारी

निष्प्राण हो जाती है
मूर्ति की तरह तथाकथित नारी
जबकि तूफान घेरता है उसके मन को,
यह इतिहास नहीं/जहां
कहानियों को सहेज कर रखा गया हो....
एक-एक परत को
उघाड़ा गया है दराती-कुदालों से,
ताकि उसकी तमाम कहानियों की गुफ़ा में
झांका जा सके,
ताकि उन कहानियों में दफ़्न
मृत आत्माओं की शांति के लिए
कुछ प्रार्थनाओं को मूर्त रूप दिया जा सके,
उस निष्प्राण होती मूर्ति के चारों ओर
जहां अंधेरा ज़रूर धंस गया है,
आखिर कला की अपराजेयता की धुंध तो
छंटनी ही चाहिए न,
ताकि मनुष्य के प्रयोजनों का विस्तार हो सके.
कई बार घनीभूत यात्राएं उसकी
संभोग से समायोजन करने तक
आदमी, कितनी आत्माओं का
राजतिलक करता रहता है
हो सकता है यह उसके
विजयपथ की दुंदुभि हो,

लेकिन नारी का विश्वास मरता नहीं
धुंए से ढंकती महाशून्य की शुभ्रता को
आंचल में छिपा लेती है
समय सवाल नहीं करता उस वक्त
उस खंडित मूर्ति पर होते परिहासों पर
शायद शिल्पियों की निःसंगता की वेदना
पार लगाने के लिए ही तो इस तरह
कालजयी होने की उपाधि से सुशोभित
किया जाता है उसे,
आखिर काल का यह नाटक किस मंच
की देन हो सकता है ,
आखि़र नारी तो नारी ही है न,
मनुष्य की कर्मस्थली का विस्तार तो नहीं न,
मूर्ति तो उसके कर्म की आख्याओं का
प्रतिरूप भर है
तभी तो उसका आवा से गमन तक का सफ़र
जारी है आज भी,
इसीलिए उसकी कथाएं ज़रूर गुंजायमान हैं
शायद यही उसका प्राण है युगान्तक के लिए
जो धधकता है मनुष्य की देह में
अनंतता के लिए.

(४)

पता जिस्म का

एक जिस्म टटोलता है
मेरे अंदर तहखाने में छिपे, कुछ जज़्बात
जिनकी क़ीमत
समय ने अपने पांवों तले दबा रखी है
उस जिस्म़ की दो आंखें एकटक
दाग़ती हैं कुछ सवालों के गोले
जिन्हें मेरी गर्म सांसें धुंआ-धुंआ करती हैं
उनकी नाक सूघंती है
मेरे आसपास के माहौल को
जिसका पता मेरे पास भी नहीं है.
उसके होंठ कुछ पूछने को
हिलते हैं आगाह करने के लिए
उसके कान मना कर देते हैं सुनने को,
मैं उस जिस्म़ की खुदाई करता हूं,
और खाली समय में ढूंढता हूं
अपने रोपे बीज को,
जो अंधेरे में पकड़ लेता है मेरा गला
पाता हूं कि वह और कोई नहीं,
मेरे ही जिस्म़ का पता है
जहां से एक नए सफ़र का दिया
टिटिमा रहा है

(५)

आंतरिक सुकून के लिए

एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर
जाता हुआ व्यक्ति/कई बार फ़िसल कर
शैवाल की नमी को छूने लगता है.
जीवन खिलने की कोशिश में
आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में
अपने ही घर के रोशनदान की आंख को
फोड़ने लगता है

मौत जरूर पीछा करती है जीवात्माओं का
लेकिन जिन्दगी फिर भी पीछा करती है मौत का
सवारी गांठने के लिए,
सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को
उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है.
कई बार उसे पूर्वजों द्वारा छोड़े गये,
सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को,
गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है.
जबकि समुद्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए
चिघाड़ता है अहर्निष,

आखिर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है
इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे
चाहे शुरू का हो या फिर/अंतिम यात्रा की बेला का,
क्योंकि कंपन की लय/टिकने नहीं देगी उसे,
जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा
उत्तेजित करता रहे चीखने-चिल्लाने के लिए.
उसके आंतरिक सुकून के लिए.