Monday 31 October 2011

तीन कवितायेँ- बसंत कुमार परिहार



नई यात्रा का आरम्भ

आज फिर सिमटकर



सामने आ गया है समय
ज़ूम लैंस लगे कैमरे की तरह
इन्फिनिटी पर बैठे दृश्य
यकबक उछलकर
सामने आ गए हैं बहुत क़रीब
घिर आई है फिर
वही पुरानी बदरिया

स्मृतिओं के उसी पुराने आँगन पर
और झरने लगी हैं बूँदें
धरती फिर हो उठी है रसवंती
ठूंठ हुए पेड़ की जड़ों के तंतु
पीने लगे हैं जीवन की रसधार

मैं भी
एक सिहरन सी अनुभव कर रहा हूँ
अपने शरीर में

फुनगियाँ
फिर फूट रही हैं शरीर के रंद्रों से
विगत फिर गुदगुदा रहा है मुझे
और
कोई बड़ी सुरीली सी तान
फिर गूंजने लगी है मेरे कानों में
बंजर मेरी धरती
फिर बन उठी है वृन्दावन

विगत और आगत
मेरी दूरबीन के लैंस के फ़ोकस पर
आ बैठे हैं एक साथ
और सब कुछ जो आउट आफ फ़ोकस था

फिर साफ सुथरा
नवजात मेमने सा
फुदकने लगा है मेरी आँखों के सम्मुख
जीवन के इस पड़ाव से
कई बार गुजरा है मेरा कारवाँ

आज फिर किसी नई यात्रा का
आरम्भ है मेरे दोस्त !
######


दो

आदमी बहुत छोटा है


आओ,
इन हवाओं के साथ मिलकर गाएं
इनकी सरसराहट में
प्रादेशिकता की बू नहीं -

आओ,
इन विहगों के साथ मिलकर गाएं
और उड़ें निर्भीक होकर-
इन्हें
न सैलाब का डर है
न किसी आंधी या तूफान का-
इनकी दुनिया में
आतंकवादी नहीं होते-

हवाओं की तरह
इनका जीवन भी मुक्त है- बन्धनहीन !

अपनी इच्छा से उड़ते हैं ये प्रवासी -
इनकी दुनिया में कोई रोकटोक नहीं
न कोई बंधन है पासपोर्ट का
न प्रवास पत्र की ज़रुरत -

हवाओं की तरह
गुदगुदा लेते हैं ये सीना
चड़ी नदी का-
घुस जाते हैं
पर्वतों की फटी दरारों में-

पेड़ों से कर लेते हैं छेड़खानी -

अपने पंखों पर
तोल लेते हैं ताकत तूफानों की !
आदमी कितना छोटा है इनके आगे !
खुद अपने आप से डरा
अपने बन्धनों में बंधा
अपनी ही रस्सिओं में कसा !

आओ, हवाओं के साथ गाएं
पक्षिओं के साथ उड़ें........

####

तीन

नींद से जागना


हर सुबह में उठता हूँ
और एक नया संसार होता है मेरे सामने
और सामने होती है
रेशमी उजाले में लरजती
एक संसृति-

प्रतिदिन
पाता हूँ मैं
एक नूतन वरदान -

कितना दिव्य है
नींद से नित जागना
भीड़ में गुम हो जाना
अकेले में गुनगुनाना
मुस्कुराना
शब्दों के फूल चुनना
पिरोना
और उस एकांत को सजाना
जहां से
संगीत का एक झरना फूटता है
और प्रकाश की चादर ओड़कर
सो जाता हूँ........

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अब तक कुल पन्द्रह पुस्तकें प्रकाशित तथा कई पुरुस्कारों से सम्मानित।
वर्तमान में -त्रैमासिक -पत्र 'आकार ', अब अहमद का लगातार सम्पादन ।
संपर्क -१/१, पत्रकार कालोनी , नारायणपुरा , अहमदाबाद (गुजरात )
फ़ोन : ०७९-२७४३५८०१

7 comments:

रश्मि प्रभा... said...

फुनगियाँ
फिर फूट रही हैं शरीर के रंद्रों से
विगत फिर गुदगुदा रहा है मुझे
और
कोई बड़ी सुरीली सी तान
फिर गूंजने लगी है मेरे कानों में
बंजर मेरी धरती
फिर बन उठी है वृन्दावन
waah..... rachnayen bahut hi achhi hain

PRAN SHARMA said...

ASHOK JI , SABHEE KAVITAAON KEE
BHAVAABHIVYAKI ATI SUNDAR HAI .
AAPKO HARDIK BADHAAEE AUR SHUBH
KAMNAAYEN .

PRAN SHARMA said...

ASHOK JI , SHRI BASANT KUMAR PARIHAR KO BHEE UMDA KAVITAAON KE
LIYE MEREE SHUBH KAMNAYEN DIJIYEGA.

Urmi said...

सभी रचनाएँ बहुत सुन्दर है! लाजवाब प्रस्तुती!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

Anonymous said...

प्रिय अशोक,

बसंत कुमार जी की कविताएं बहुत अच्छी हैं. ’आदमी बहुत छोटा है’ कविता ने भाई सुभाष नीरव के ’परिन्दे’ कविता की याद ताजा कर दी. ऎसा प्रायः देखने में आता है कि एक ही देश-काल के एकाधिक रचनाकार अपनी रचनाओं में एक-से भाव व्यक्त करते हैं. भाव ही नहीं ---कभी कभी वे वही शब्द और वाक्य लिख जाते हैं जो दूसरे ने लिखा हुआ होता है. नीरव की यह कविता २००५ में पढ़ी थी और उसके बाद कई बार पढ़ने का अवसर मिला. यह उनकी चर्चित कविता है, जिसकी अंतिम पंक्तियां बसंत जी की कविता की निम्न पंक्तियों से कितना मिलती हैं----इसे संयोग ही कहा जाना चाहिए.

अपनी इच्छा से उड़ते हैं ये प्रवासी -
इनकी दुनिया में कोई रोकटोक नहीं
न कोई बंधन है पासपोर्ट का
न प्रवास पत्र की ज़रुरत -

सुभाष नीरव के ’परिन्दे’ कविता की अंतिम पंक्तियां :

प्रांत, देश की हदों-सरहदों से भी परे होते हैं
आकाश में उड़ते परिन्दे।
इन्हें पार करते हुए
नहीं चाहिए होती इन्हें कोई अनुमति
नहीं चाहिए होता कोई पासपोर्ट-वीज़ा।

शुक्र है-
परिन्दों ने नहीं सीखा रहना
मनुष्य की तरह धरती पर।

दोनों ही कवियों को बधाई.

चन्देल
०२-११-२०११ (रात्रि - २२-१६ बजे)

पुनःश्च

भाई अशोक,

एक ही समय में तुम्हारे दोनों ब्लॉग्स में प्रतिक्रिया दी थी, रिमझिम में मेरी प्रतिक्रिया प्रकाशित हो गयी तो ’कथाकाव्यम’ में क्यों नहीं की? रचनाकार पाठकों के लिए लिखता है और पाठक को यह अधिकार है कि वह अपनी बात कहे. एक ईमानदार सम्पादक का काम होता है रचना पर पाठक को सम्मान देते हुए उसकी प्रतिक्रिया को दूसरे पाठकों तक पहुंचाना. अपने दायित्व का निर्वाह करने से बचना प्रतिक्रिया देने वाले पाठक का अपमान है. खासकर ई व्यवस्था में जिसमें प्रतिक्रिया न पहुंचने का बहाना नहीं लिया जा सकता. उस पर तब जबकि उसे कई बार प्रकाशनार्थ भेजा गया हो. आशा है एक पाठक के नाते मेरे अधिकार की रक्षा करोगे. यहां हम मित्र के नाते नहीं ---एक सम्पादक के समक्ष एक पाठक के नाते प्रस्तुत हूं.

चन्देल
०४-११-२०११ (दिन : दोपहर : १४.५० बजे)

Amrita Tanmay said...

सुन्दर कविता , बहुत अच्छी लगी..

Madan Mohan Saxena said...

सुन्दर प्रस्तुति | बधाई