Monday 31 August 2009

रूप सिंह चन्देल

कहानी


एक मिनट यार !

“चमन...” आवाज़ गैलरी को लाँघती, दरवाजे को फलाँगती चमन के कानों से टकराई तो मफ़लर से ढंके उसके कान चौकन्ना हो उठे।‘आहूजा आज फिर डांटेगा...कुछ भी नहीं सुनेगा।’ मेज पर तेजी से डस्टर घुमाते चमन के हाथ सरकने लगे।“आज फिर तूने सवा नौ बजा दिए। अभी तक सफाई नहीं हुई? भगवान के लिए फूल सजाने हैं... कब करेगा?” आहूजा के बायें हाथ में नोट शीट का पैड और दाहिने में पेन था। दफ़्तर जाने के साथ ये चीजें एक बार उसके हाथ आतीं तो दफ़्तर बंद होने तक वह उन्हें थामे रहता।“अभी सब हुआ जाता है सर।"“ऐसे नहीं चलेगा। समय से नहीं पहुँच सकता तो बोल, भिजवा दूँ पूना–भुवनेश्वर। करना वहाँ मटरगश्ती।"“मटरगश्ती कैसी सर! आज कोहरा अधिक था। बस अटक गई आई.टी.ओ. पुल पर...।"“रोज का बहाना छोड़। कोहरा उधर से अधिक रहा होगा वसंत कुंज इलाके में... फिर भी मैं कैसे पहुँच गया समय से !” शब्दों को पीसता आहूजा बोला।“सर, आप बस से कहाँ आते हैं। आप तो आटो से...।"“तुझे किसने मना किया है। तू भी आटो से आ।" आहूजा दाहिने हाथ से सिर खुजलाता बोला। ऐसा वह प्राय: करता है।चमन चुप रहा। मेज साफ हो चुकी तो आहूजा बोला, “जल्दी कर... भगवान के पास अगरबत्ती जला और यह ले माला।" पॉलिथीन की थैली में गुलाब की माला बढ़ाता आहूजा बोला, “इसे उस छोटी मेज पर रख दे।"“जी सर !” चमन अगरबत्ती सुलगाने लगा।“और सुन।" चमन आहूजा की ओर देखने लगा।“पानी का जग साफ करके भर ला। गिलास में हल्का गर्म पानी... आज ठंड अधिक है।"“जी सर !”आहूजा पलटा, “आज ससुरा स्वीपर भी नहीं आया। बाथरूम साफ नहीं हो पाया।" सिर खुजलाता वह बुदबुदाया, “क्या-क्या देखूँ !” आहूजा दरवाजे पर ठिठक गया। चमन जग उठाये उसके पीछे ही था कि वह चीखा, “अबे तुझे कितनी बार कहा कि आते ही ब्लोअर चालू कर दिया कर... अगर मैम आ गई...।" आहूजा ने घड़ी देखी, “आने का समय हो रहा है।... अपने साथ मेरी भी छीछालेदर करवाएगा। अब तक कमरा गर्म हो जाना चाहिए था। ऐं... समझ में नहीं आता?”“सॉरी सर, भूल गया था। अभी किए देता हूँ।" आहूजा के चेहरे के भाव देख चमन सकपका गया और ब्लोअर की ओर बढ़ा।“उसे छोड़, दौड़– अच्छी तरह जग साफ कर पानी भर... उसे मैं आन कर दूँगा।" आहूजा ब्लाअर आन करने के लिए बढ़ गया।चमन पानी लेने दौड़ गया तो आहूजा ने कमरे से अटैच मैम के बाथरूम-कम-टॉयलेट का मुआयना किया। प्रसाधन सामग्री देखी। कंघा, लिपिस्टिक, परफ्यूम, क्रीम, सब दुरुस्त... वह आश्वस्त हुआ। उसने टॉवल उलट कर टांगा, टिश्यू-पेपर्स, टॉयलेट सॉप... दुरुस्त पाया उसने।उसे दफ़्तर के चपरासियों पर विश्वास नहीं है। सभी चोर हैं– मैम की लिपिस्टिक उठा लें, परफ्यूम या पाउडर घर ले जाएं। छोटे लोगों की मानसिकता छोटी होती है। एक बार हंगामा हुआ था। मैम को एक सेमिनार में जाना था। लिपिस्टिक और कंघा गायब थे। मैम का पारा सातवें आसमान पर... वह सकपकाया-सहमा रहा। स्टॉफ-कार लग चुकी थी कमरे के बाहर। समय भी न था कि गोल मार्केट से मंगवाता। उस क्षण उसने सोचा था कि मैम के जाते ही वह चमन और स्वीपर की खबर लेगा। लेकिन, तभी मैम को याद आ गया था। पिछले दिन सेमिनार में जाते समय मैम वे चीजें पर्स में डाल कर ले गई थी।चमन और स्वीपर आरोप की गिरफ्त में आने से बच गये थे।कमरे से निकलते चमन ने मन ही मन आहूजा को भद्दी-सी गाली दी और सामने आ रहे सहायक निदेशक अंसारी को तेज आवाज़ में नमस्ते की।अंसारी ठंड से सिकुड़ा हुआ था। चमन की नमस्ते का उत्तर धीमे स्वर में दिया उसने, जिसे चमन नहीं सुन सका।‘यह ज़िन्दगी भी क्या है !’ भुनभुनाता हुआ चमन भाग्य को कोस रहा था।‘दफ़्तर में दूसरे चपरासी भी हैं, लेकिन न आहूजा उन्हें कुछ कहता है और न अंसारी। वे सब कभी भी आते-जाते हैं। लेकिन उनकी गाज मुझ पर ही गिरती है।’चमन सोच रहा था, ‘पता नहीं कौन-से पाप किए थे कि निदेशक के साथ ड्यूटी लगा दी। पाँच साल से एक ही रूटीन! सुबह पाँच बजे से ही दफ़्तर शुरू हो जाता है, बच्चे तक को ढंग से स्कूल के लिए तैयार नहीं कर पाता। पत्नी दुखी है। दुनिया को देखती जो है। पड़ोसी रामभरोसे कभी भी साढ़े आठ बजे से पहले दफ़्तर के लिए घर से नहीं निकलता। शाम छह बजे तक घर वापस। जबकि मैं दफ़्तर से ही साढ़े छह बजे के बाद निकल पाता हूँ। रात साढ़े आठ से पहले घर पहुँचना कठिन है। जबकि रामभरोसे का दफ़्तर मेरे दफ़्तर के पास ही है।’‘कितनी ही बार आहूजा को ड्यूटी बदलने को कहा, लेकिन वह सुने तब न ।’‘आहूजा है तो सेक्सन आफिसर... लेकिन संयुक्त निदेशक राव के बजाय उसका दबदबा अधिक है दफ़्तर में। वह मैम की नाक का बाल बना हुआ है। एक दिन सुधीर बाबू जिक्र कर रहे थे– आहूजा खानदानी है। इसका बाप भी इसी विभाग में था और वह भी बड़े अफसरों के सेवाभाव में रात-दिन एक किए रहता था।’नल पर दूसरे दफ़्तर के चपरासी पहले ही झुके हुए थे।‘आहूजा मुझे कहता है कि वह आटो से आ सकता है... मैं क्यों नहीं। मुझे कह ही देना चाहिए था कि नया फर्नीचर और निदेशक से लेकर दूसरे अधिकारियों के कमरों के लिए कारपेट की खरीद में बीस प्रतिशत कमीशन आहूजा साहब चमन ने नहीं खाया था। दूसरे न जाने कितने काम हैं जिसमें वह कमीशन खाता है।’‘क्या मैम को यह सब पता नहीं। लेकिन, उनके आँखें मूंदे रहने का भी कारण है। मैम के बच्चों से लेकर हसबैंड के लिए दिन-भर दफ़्तर की गाड़ी दौड़ती रहती है। प्रतिदिन लंच दफ़्तर खाते से... घर के दोनों कुत्तों के लिए हफ्ते में तीन दिन गोल मार्केट से मीट आहूजा स्वयं लेने जाता है... अपनी जेब से नहीं...दफ़्तर खाते से। एक कैजुअल लेबर रामखिलावन स्थायी रूप से मैम के घर रहता है, कुत्तों को नहलाने, टहलाने और घर के दूसरे कामों के लिए। सिविल सर्विस से एक वर्ष पूर्व रिटायर्ड मैम के पति की सेवा में दिन-भर दौड़ता रहता है रामखिलावन।’‘रामखिलावन ने एक दिन फुसफुसा कर बताया था– तू नहीं जानता चमन... आहूजा हर दूसरे दिन मैम के बंगले में सुबह आठ बजे पहुँचता है फूल लेकर... ड्राइंग-रूम के लिए। बीस के चालीस वसूलता होगा वह फूलों के- दफ़्तर से।’आहूजा फूलों की एक माला प्रतिदिन दफ़्तर लाता है। मैम के कमरे में भगवान की एक मूर्ति है... एक कोने में... मैम ने लाकर रखी थी। ट्रांसफर पर आयी, तब साथ लायी थीं। दफ़्तर पहुँचते ही मैम पाँच मिनट पूजा करती है– माला पहनाती है। शाम दफ़्तर छोड़ते समय भी पूजा करना नहीं भूलतीं। भगवान में उनकी प्रगाढ़ आस्था है। एक घटना ने आहूजा की आस्था भी उस मूर्ति के प्रति जाग्रत कर दी थी। तब से आहूजा दफ़्तर पहुँचते ही उसके सामने सिर झुकाना नहीं भूलता।हुआ यह कि एक बार मैम को कलकत्ता के लिए राजधानी ट्रेन पकड़नी थी। पूजा किए बिना जाना मैम के लिए कठिन था। लेकिन दो आवश्यक फाइलें निबटाने में उन्हें इतना समय लगा कि पूजा करने का अर्थ था–गाड़ी छूटना। गाड़ी छोड़ना उन्हें स्वीकार था, पूजा नहीं।उस दिन आहूजा विकल भाव से कभी मैम के कमरे में जाता, कभी बाहर कार तक। उसके चेहरे पर तनाव स्पष्ट था। जब तक मैम की पूजा समाप्त नहीं हुई, आहूजा अंदर-बाहर होता रहा। पूजा से निपट मैम बोली, “आहूजा, इतना परेशान क्यों हो... राजधानी मुझे लेकर ही जाएगी।"“मैम दस मिनट ही...” घड़ी देख आहूजा बोला।“पंद्रह मिनट का रास्ता है यहाँ से स्टेश्न का... ट्रेन मिलेगी।"और ट्रेन एक घंटा विलम्ब से गई थी। आहूजा सोचे बिना नहीं रह सका कि वह विलम्ब पूजा के कारण ही हुआ।दफ़्तर के दूसरे चपरासी जा चुके थे। चमन जग साफ करने लगा।चमन दबे पांव मैम के कमरे में घुसा। मैम तब तक आयी नहीं थीं। आहूजा को कमरे में न पाकर उसने राहत महसूस की। जग मैम की कुर्सी के पीछे स्टूल पर रख वह बाहर उन्हें रिसीव करने जाने के लिए मुड़ा तो उसे बाथरूम-कम-टॉयलेट से कुछ आहट-सी सुनाई दी।‘स्वीपर जगन अब आया है। इसको इतनी बार समझाया गया कि मैम के आने के समय वह बाथरूम में न घुसा करे। खुद भी मरेगा... मुझे भी मरवाएगा। मैम तो मैम... आहूजा देख लेगा तो जमीन-आसमान एक कर देगा।’बाहर का दरवाजा खोलने के लिए बढ़ता वह बाथरूम की ओर मुड़ गया। दरवाजा खोलते ही उसने जो देखा तो वह हत्प्रभ कुछ देर तक देखता ही रह गया। आहूजा संडास पर झुका हुआ था। उसके दाहिने हाथ में एक छोटा-सा डंडा था। डंडा संडास में डाल आहूजा उसे घुमा रहा था, यों जैसे संडास की सफाई कर रहा हो। क्षण भर तो चमन देखता रहा, फिर बोला, “सर, मैम आने वाली हैं। उन्हें रिसीव नहीं करेंगे।"“एक मिनट यार !...” आहूजा ने उसकी ओर देखे बिना खीझ भरा उत्तर दिया और बदस्तूर संडास में डंडा घुमाता रहा।चमन दरवाजा खोल बाहर निकल गया।
-- Roop Singh Chandelhttp://www.vaatayan.blogspot.com/wwwrachanasamay.blogspot.com

3 comments:

Anonymous said...

इला ने कहा

रूप सिंह जी तो मंजे हुए लेखक हैं। उनकी लेखनी से ऐसा ही कुछ पाने की उम्मीद की जा सकती है।
सादर
इला

04 September 2009 07:44

बलराम अग्रवाल said...

कार्यालयों में नौकरशाही के बढ़े हुए दबदबे को यद्यपि धैर्य के साथ उकेरा गया है, लेकिन यह कहानी फ्रायड के मनोविश्लेषण के खराद पर भी परखी जा सकती है। तब इसके अर्थ कुछ और नजर आएंगे और उस टिप्पणी को भी शायद स्क्रीन से हटा देना पड़े।

PRAN SHARMA said...

KAHANI APNA POORA PRABHAAV CHHODTEE HAI.