
टी वी से पोषित होते हमारे धार्मिक तथ्य
भीड़ -भाड़ से दूर विदुर - कुटी अपने आप में रम्य स्थान होने के बावजूद अपने दुर्दिन को जीती हुई दिखी दे रही थी । बहुत चर्चा सुनी तथा पड़ी थीं मैंने । महाभारत का एक बहुचर्चित पात्र उपेक्षा के बोध से ग्रसित , अपने अन्तिम समय तक वहीं कुटिया बना आत्मचिंतन में लीन हो गया था । मानो सारा संसार मिथ्या के भरम - जाल में फसां दीख रहा था उसे । सच्चाई जिसकी जीह्वा पर हर समय विराजती थी कभी , आज जड़ हो उसी धरती पर मौन हो गई थी ।
ऐसे महान व्यक्ति की भक्ति - स्थली को देखने के लिये , एक लंबे सफर के उपरांत पहुंचा था पत्नी के साथ । कई सवाल उछाले थे उस तक । पता नहीं क्यों सारे सवाल निरुत्तर हो लौट आए थे हम तक ।
मन खीज उठा था । अशांत विक्षोभ सा । पूछने पर पता चला की वह गत दो वर्षों से वहाँ कार्यरत है ।
उधर , पुजारी शांत भाव से मन्दिर की जानकारी के साथ -साथ विधुर के बारे में बता रहा था । ठीक पीछे साठ की गिनती गिनता हुआ एक बुढ़ा व्यत्त्कि अपनी अनभिज्ञता को शीर्ष पर पंहुचा अस्पष्ट शब्दों में फुस्फुसा रहा था ........
भीड़ -भाड़ से दूर विदुर - कुटी अपने आप में रम्य स्थान होने के बावजूद अपने दुर्दिन को जीती हुई दिखी दे रही थी । बहुत चर्चा सुनी तथा पड़ी थीं मैंने । महाभारत का एक बहुचर्चित पात्र उपेक्षा के बोध से ग्रसित , अपने अन्तिम समय तक वहीं कुटिया बना आत्मचिंतन में लीन हो गया था । मानो सारा संसार मिथ्या के भरम - जाल में फसां दीख रहा था उसे । सच्चाई जिसकी जीह्वा पर हर समय विराजती थी कभी , आज जड़ हो उसी धरती पर मौन हो गई थी ।
ऐसे महान व्यक्ति की भक्ति - स्थली को देखने के लिये , एक लंबे सफर के उपरांत पहुंचा था पत्नी के साथ । कई सवाल उछाले थे उस तक । पता नहीं क्यों सारे सवाल निरुत्तर हो लौट आए थे हम तक ।
मन खीज उठा था । अशांत विक्षोभ सा । पूछने पर पता चला की वह गत दो वर्षों से वहाँ कार्यरत है ।
उधर , पुजारी शांत भाव से मन्दिर की जानकारी के साथ -साथ विधुर के बारे में बता रहा था । ठीक पीछे साठ की गिनती गिनता हुआ एक बुढ़ा व्यत्त्कि अपनी अनभिज्ञता को शीर्ष पर पंहुचा अस्पष्ट शब्दों में फुस्फुसा रहा था ........
"बाबू जी , आप काहे को परेशान हो रहे हो, कल टी वी पर महाभारत आएगा ही । आपको विदुर जी के बारे में बाकी की सारी जानकारियां मिल ही जाएंगी ।"
मैं , पत्नी के साथ इस जानकारी पर अवाक हुए बिना नही रह सका । और उसके द्वारा दी गई जानकारी पर मन ही मन खिन होता हुआ मन्दिर की सीढ़ियां उतरने लगा था ।
द्रोपती की बटलोई
एक बुदिध्जीवी न जाने किस धुन में बहुत तेज गति से चला जा रहा था । अचानक उसकी दृष्टी सडक पर पडे एक जीर्ण -शीर्ण बर्तन पर जाकर रुकी । उसने उसे उठा कर अपनी बुद्धि पर जोर दिया -"ओह यह तो शायद द्रोपदी की बटलोई है । "
वह खुशी से पागल हो गया और अपनी खोज पर गर्व करते हुए, नए चमत्कार का सूरज चमकाने के लिए शहर की और भागा । किंतु समय की उबड- खाबड सडक पर उसके अनियंत्रित कदमों ने ऐसी ठोकर खाई कि धराशायी हुए -------
उठ सकने की क्षमता खो बठने वाले शरीर से बटलोई काफी दूर जाकर गिरी ।
उधर विपरीत दिशा से अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुए बढ़ रहे अन्धकार ने धीरे धीरे सारे दृश्य को अपनी अनन्त काली चादर से ढक दिया । तब से आजतक न तो उस बटलोई का और न ही बुद्धिजिवी का । हाँ , और बहुत से बुद्धिजीवी उसी दिशा की और जाने के लिए अग्रसर जरुर हैं ।
5 comments:
आपका स्वागत है....
Bahut sundar yatra sansmaran.
chandel
अशोक जी
चिटठा जगत में आप का संस्मरण व द्रोपदी की बटलोई पढ़ी, बहुत सुन्दर, बधाई - आशा करती हूँ कि भविष्य में भी ऐसी रचनाएँ पढने को मिलेंगी.
सुधा
ब्लोगिंग जगत में आपका स्वागत है।
शुभकामनाएं।
लिखते रहिए, लिखने वालों की मनज़िल यही है।
भावों की अभिव्यक्ति मन को सुकून पहुंचाती है।
कविता,गज़ल और शेर के लिए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
रचना गौड़ ’भारती’
bahut sundar, narayan narayan
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