Thursday 26 February 2009

अशोक आन्द्रे



दुःस्वप्न

एक गलियारे से
दुसरे गलियारे में जाता हुआ आदमी
मृगजाल में ठिठकता है ,
सपने लुभाते हैं उसे ,
विस्फोट से पहले
दहकते पलाशों में
चमकते गलियारों में ।
लेकिन नन्ही चिड़िया सहम जाती है
उसके हाथ में ,

हरी पत्ती देखकर ।

मुद्दे


मुद्दों की बात करते -करते

वे अक्सर रोने लगते हैं

उनका रोना उस वक्त

कुछ ज्यादा बड़ा आकार लेने लगता है

जब कटोरी में से दाल खाने के लिए

चम्मच भी नहीं हिलायी जाती उनसे

मुद्दों की बात करते -करते

कई बार वे हँसने भी लगते हैं

क्योंकि उनकी कुर्सी के नीचे

काफी हवा भर गई होती हे


मुद्दों की बात करते - करते

वे काफी थक गये हैं फिलहाल

बरसों से लोगों को

खिला रहे हैं मुद्दे

पिला रहे हैं मुद्दे

जबकि आम आदमी उन मुद्दों को

खाते - पीते हुए काफी कमजोर

और गुस्सैल नजर आने लगा है


मुद्दों की बात करते - करते

उनकी सारी योजनाएँ भी साल-दर-साल

असफलताओं की फाइलों पर चढ़ी

धूल चाटने लगी हैं

जबकि आम आदमी गले में बंधी -

घंटी को हिलाए जा रहा है


मुद्दों की बात करते - करते

उन्हें इस बात की चिंता है की

आने वाले समय में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर

आम लोगों की भूख को कैसे

काबू में रखा जा सकेगा ?


मुद्दों की बात करते - करते

वे कभी - कभी बड़बड़ाने भी लगते हैं कि

उनके निर्यात की योजना

आयात की योजना में उलझ गयी है

रूपये की तरह हर साल अवमूल्यन की स्थिति में खड़ी

उनकी राजनीति लालची बच्चे की तरह लार टपका रही है क्योंकि


आजकल मुद्दे लगातार मंदी के दौर से गुजर रहे हैं ।

2 comments:

Dr. Sudha Om Dhingra said...

हमेशा कि तरह आप की कविताएँ सोचने पर मजबूर करतीं हैं.संवेदात्मक अभिव्यक्ति के लिए बहुत -बहुत बधाई.
सुधा

Anonymous said...

विस्फोट से पहले /दहकते पलाशों में /चमकते गलियारों में । Dhswapn Kvita ki ati samvedanshil panktiya hain....Muddy kavita bhi samay ke sach ka aaina hai---yathharthh ko puri sakriyata se nirkhati hue....AAPKO MERI TARAF SE BADHAI
Ranjana Srivastava,siliguri